Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ ये चौदह गुणस्थानक मोक्ष प्राप्त करने के, आत्मिक सुख को प्राप्त करने के एवं कर्मबंधन से मुक्त होने की सीढ़ियों के समान हैं। जैसे मकान के ऊपरी मंजिल पर चढ़ने के लिए सीढियां होती हैं। वैसे ही गुणस्थानों की भी स्थिति है। पूर्व-पूर्व गुणस्थानों से उत्तर-उत्तर गुणस्थानों में शुद्धि के बढ़ने से अशुभ प्रकृतियों की अपेक्षा शुभ प्रकृतियों का बंध अधिक होता है और फिर इन शुभ प्रकृतियों का भी बंध-विच्छेद हो जाने से शुद्धात्मदशा मोक्षदशा प्राप्त होती है। चौदह गुणस्थानों के नाम मिच्छे सासण मीसे, अविरय देसे पमत अपमते। नियट्टि अनियट्टि सुइम वसम रवीण सजोगी अजोगि गुणा।। मिथ्यादृष्टियाधयोगिपर्यन्तेषु / / 8 ___1. मिथ्यादृष्टि, 2. सास्वादन, 3. सम्यग् मिथ्यादृष्टि, 4. अविरत सम्यग्दृष्टि, 5. देशविरती, 6. प्रमतसंयत, 7. अप्रमतसंयत, 8. अपूर्वकरण, 9. अनिवृति वादर संपराय, 10. सूक्ष्मसंपराय, 11. उपशान्तमोह, 12. क्षीणमोह, 13. सयोगी केवली, 14. अयोगी केवली। उपाध्याय यशोविजय ने भी गुणस्थानों का वर्णन आठ दृष्टि की सज्जाय एवं अध्यात्मसार,280 ज्ञानसार 281 में भी किया है। जैन दर्शन में आत्म-विकास के क्रम को दिखलाने के लिए जैसे चौदह गुणस्थान माने गये हैं, वैसे ही योगवाशिष्ठ में भी 14 भूमिकाओं का बड़ा रुचिकर वर्णन है। उनमें सात अज्ञान की और सात ज्ञान की भूमिकाएँ हैं, जो जैन परिभाषा के अनुसार क्रमशः मिथ्यात्व की ओर सम्यक्त्व की सूचक है। अज्ञान की सात और ज्ञान की सात भूमिकाओं के नाम इस प्रकार हैं-अज्ञान की सात भूमिकाएँ1. बीज जागृत, 2. जागृत, 3. महाजागृत, 4. जागृतस्वप्न, 5. स्वप्न, 6. स्वप्न जागृत, 7. सुषुप्तक। ज्ञान की सात भूमिकाएँ-1. शुभेच्छा, 2. विचारणा, 3. तनुमानसा, 4. सत्वापति, 5. असशंकित, 6. पदार्थाभाविनी, 7. तुर्यागा। अज्ञान की भूमिकाओं में उत्तरोत्तर ज्ञान का प्राबल्य होने से उन्हें अविकास काल और ज्ञान की भूमिकाओं में क्रमशः ज्ञान-विकास में वृद्धि होने से उन्हें विकास-क्रम की श्रेणियां कह सकते हैं। योगदर्शन में चित्त की पांच अवस्थाओं का वर्णन है-1. मूढ़, 2. क्षिप्त, 3. विक्षिप्त, 4. एकाग्र, 5. निरुद्ध | 24 इन चित्तवृत्तियों की गुणस्थानों के साथ एक देश से तुलना हो सकती है, पूर्णतः नहीं। यही चित्तवृत्तियों का वर्णन उपाध्याय यशोविजय ने योगविंशिका285 में भी किया है। जैन शास्त्रों में जैसे बंध के कारण कर्म प्रकृतियों का वर्णन है वैसे ही बौद्ध दर्शन में दस संयोजनाएँ बताई गई हैं-1. समकाय, 2. दिट्ठी, 3. विचिकित्सा, 4. सीलव्वत, 5. पराभास, 6. कामराग, 7. परीघ, 8. रूपराग, 9. अरूपता, 10. मान, 11. उदधव्व और 12. अविज्जा। ___इनमें से प्रथम तीन संयोजनाओं के क्षय होने पर सोतापन्न अवस्था प्राप्त होती है। पांच औदभागीय संयोजनाओं के नाश होने पर औपचारिक अनागामी अवस्था एवं दसों संयोजनाओं का नाश होने पर अरहा अवस्था प्राप्त होती है। यह वर्णन जैन शास्त्रगत कर्म प्रकृतियों के क्षयक्रम से मिलता-जुलता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आत्म-विकास के इच्छुक दर्शनों ने अपने-अपने ढंग से विकास-युग का उल्लेख किया है पर उनमें क्रमबद्ध धारा के दर्शन नहीं हैं। जैन दर्शन में इसकी विस्तार में चर्चा 362 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org