Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ 01. 02 * जघन्य स्थिति जघन्य स्थिति का वर्णन करते हुए उपाध्याय यशोविजय कम्मपयडी टीका में बताते हैं कि भिज्जमुहुतं आवरण विग्घ दंसणचउलोभते। बारस साय मुहुर्ता अठ य जसकिति उच्चेसु।1761।। वेदनीय की 12 मुहूर्त, नाम, गोत्र की 8 मुहूर्त और शेष कर्मों की जघन्य-स्थिति अन्तमुहूर्त है। . कम से कम स्थिति जघन्य और अधिक से अधिक स्थिति उत्कृष्ट कहलाती है। कर्मों की प्रबलता के अनुसार उनमें स्थितिकाल में अन्तर रहता है। भिन्न-भिन्न कर्मों की स्थिति इस प्रकार हैक्र.सं. कर्म जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरणीय अन्तर्मुहूर्त 30 कोडाकोडि सागरोपम दर्शनावरणीय अन्तर्मुहूर्त 30 कोडाकोडि सागरोपम वेदनीय 12 मुहूर्त 30 कोडाकोडि सागरोपम मोहनीय अन्तर्मुहूर्त 70 कोडाकोडि सागरोपम दर्शनमोहनीय अन्तर्मुहूर्त 70 कोडाकोडि सागरोपम चारित्र मोहनीय अन्तर्मुहूर्त 40 कोडाकोडि सागरोपम आयुष्य अन्तर्मुहूर्त 33 कोडाकोडि सागरोपम नाम 8 मुहूर्त 20 कोडाकोडि सागरोपम 8 मुहूर्त 20 कोडाकोडि सागरोपम 10. अंतराय अन्तमुहूर्त 30 कोडाकोडि सागरोपम यह मूल कर्मों की उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति है। इसी प्रकार उत्तर-प्रकृतियों की भी भिन्न-भिन्न उत्कृष्ट स्थिति एवं जघन्य स्थिति होती है। मूल कर्मों की उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति का विवेचन उत्तराध्ययन सूत्र, तत्त्वार्थ सूत्र, श्रावक प्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना टीका, कर्मग्रंथ,296 नवतत्त्व, पांचवां कर्मग्रंथ 8 एवं कम्मपयडी की टीका में उत्तर-प्रकृतियों की उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति का वर्णन मिलता है। कर्म के स्वामी __ जैन कर्म सिद्धान्त में कर्म के स्वामी की चर्चा अनेक प्रकार से की गई है, जैसे कि मूल कर्म के स्वामी, उत्तर-प्रकृतियों के स्वामी, प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेशबन्ध के स्वामी, सामान्य से बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता के स्वामी, लेकिन सामान्य दृष्टिकोण से चिन्तन किया जाए तो आठों कर्मों के स्वामी चारों गति के जीव हैं, क्योंकि सामान्यतः सर्वज्ञ भगवंतों का यह उपदेश है कि जब तक जीव कम्पता है, धुजता है, चलता है, फिरता है, स्पंदन करता है, दुःखी होता है, उन-उन भावों में परिणाम आता है, तब तक जीव आयुष्य को छोड़कर सात प्रकार के कर्म प्रतिसमय बांधता है। आयुष्य कर्म जीवन में एक बार ही बांधता है।500 गोत्र 365 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org