________________ गुणस्थानक की दृष्टि से देखा जाए तो 1 से 10 गुणस्थानक के जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय के स्वामी हैं। वेदनीय के 1 से 13 गुणस्थानक के जीव हैं। आयुष्य कर्म के मिश्र गुणस्थानक के बिना 1 से 6 गुणस्थानक वाले जीव हैं।501 चारों गतियों एवं 84 लाख जीवयोनि के जीवों को आठ कर्मों का उदय होता है। अतः देव, मनुष्य, तिर्यंच, नरक-चारों गतियों के जीव 8 कर्मों के स्वामी हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं अंतराय का 1 से 12 गुणस्थानक तक उदय होता है। मोहनीय का एक से दस गुणस्थानक तक उदय होता है। इन चार घाती कर्मों का क्षय हो जाने पर शेष चार वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र कर्म का 11 से 14 गुणस्थानक तक उदय होता है। अतः ये इनके स्वामी हैं। आठ कर्मों की सत्ता भी चारों गतियों के जीवों को होती है। जिसमें कर्मों की सत्ता होगी, वही सत्तावान (स्वामी) बनेगा। मोहनीय की सत्ता 1 से 11 ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतराय की सत्ता 1 से 12 और वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र की सत्ता 1 से 14 गुणस्थानक तक होती है। विशेष रूप में विचार किया जाए तो बासठ मार्गणा आदि से भी बंध, उदय, सत्ता का स्वामीत्व है। जैसे गति में नरक गति में कितनी प्रकृतियों का बंध, उदय, सत्ता आदि इसका विचार किया जाता है। स्वामीत्व का विश्लेषण बहुत ही विस्तृत रूप से कर्मग्रंथ एवं कर्मप्रकृति में किया गया है। कर्म का वैशिष्ट्य कर्म सिद्धान्त भारतीय चिन्तकों के चिन्तन का मक्खन है। सभी आस्तिक दर्शनों का भव्य भवन कर्मसिद्धान्त रूपी नींव पर ही अवलम्बित है। भले कर्म के स्वरूप में मतैक्य न हो लेकिन सभी दार्शनिक विचारकों एवं चिन्तकों ने आध्यात्मिक विकास के लिए कर्ममुक्ति आवश्यक मानी है। यही कारण है। कि सभी दर्शनों ने कर्म-विषयक अपना-अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है परन्तु जैन दर्शन में कर्म विषयक चिन्तन बहुत सूक्ष्मता से किया गया है। इस संसार में चारों गति के जीव पूर्वकृत कर्मों का भोग करते हैं, क्योंकि पूर्व में किये हुए शुभ हो या अशुभ कर्म असंख्य वर्षों के बाद भी भोगे बिना क्षय नहीं होते। जिस प्रकार सैकड़ों गायों में भी बछड़ा अपनी माता को ढूंढ लेता है तथा कोष के धन के समान पूर्वकृत कर्म का फल पहले. से ही विद्यमान रहता है और जिस-जिस रूप में अवस्थित रहता है, उस-उस रूप में उसे सुलभ करने के लिए मनुष्य की बुद्धि सतत् उद्धत रहती है। उसी तरह इस प्रकार प्रत्येक संसारी जीवात्मा कर्म की बलवत्ता से दबे हुए हैं लेकिन इतना तो निश्चित है कि चारों गतियों में से तीन गतियों के जीव कर्म को पुरुषार्थ, संयोग के द्वारा सम्पूर्ण नाश करने में समर्थ नहीं है तथा मनुष्य गति में जिसका तथाभव्यत्व परिपक्व नहीं हुआ, चरम पुद्गल परावर्तन काल तक नहीं पहुंचा हो, वह भी कर्मों से पराजित हो जाता है। लेकिन जिस आत्मा का भव्यत्व परिपक्व हो जाता है और चरम पुद्गल में आता है, वह सम्पूर्ण कर्मों को अपने प्रबल पुरुषार्थ, तप, त्याग, ध्यान, भावना द्वारा क्षय कर सकता है और वह मनुष्यगति में ही शक्य है। कर्मवाद का सिद्धान्त जीवन में आशा, उत्साह और स्फूर्ति का संवाद करता है। उस पर पूर्ण विश्वास होने के बाद निराशा, अनुत्साह और आलस्य तो रह ही नहीं सकते। सुख-दुःख के झोंके आत्मा को विचलित नहीं कर सकते। कर्म ही आत्मा को जन्म-मरण के चक्र में घुमाता है। हमारी वर्तमान अवस्था हमारे ही कर्मों का फल है। मनुष्य जो कुछ पाता है, वह उसी की बोई हुई खेती है। 366 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org