________________ . योग निरोध करके सर्व कर्म क्षय कर मोक्ष को प्राप्त होता है। इस तरह आराधना, तप, शुभ अध्यवसाय आदि के निमित्त से नये बंधते कर्मों को रोककर (संवर) करके और बांधे हुए कर्मों की निर्जरा करते-करते सम्पूर्ण कर्मों का क्षय संभव है। गुणस्थानक में कर्म का विचार ___ गुणस्थान में कर्म का विचार करने के पहले संक्षेप में गुणस्थान, लक्षण एवं नाम का निर्देश अत्यावश्यक है। अतः पहले उसका स्वरूप प्रदर्शन करते हैं। गुण्यस्थान गुण एवं स्थान दो शब्दों से निष्पन्न पारिभाषिक शब्द है। गुणस्थानी का क्रम ऐसा है, जिससे उन वर्गों में सभी संसारी जीवों की आध्यात्मिक स्थितियों का समावेश होने के साथ-साथ बंधादि संबंध की योग्यता दिखलाना सहज हो जाता है और एक जीव की योग्यता, जो प्रति समय बदलती रहती है, उसका भी दिग्दर्शन किसी-न-किसी विभाग द्वारा किया जा सकता है। इससे यह बताना सरल हो जाता है कि अमुक प्रकार की आंतरिक शुद्धि या अशुद्धि वाला जीव इतनी और अमुक-अमुक कर्म-प्रकृतियों के बंध, उदय, उदीरणा एवं सत्ता का अधिकारी है तथा आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से देखा जाए तो अन्य विषयों की अपेक्षा गुणस्थानक का महत्त्व अधिक है। / यद्यपि गुणस्थानक की अवधारणा जैन धर्म की एक प्रमुख अवधारणा है, तथापि प्राचीन स्तर के जैनागमों, यथा आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, भगवती आदि में इसका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। गुणस्थानक शब्द का प्रयोग आगमोत्तर कालीन टीकाकारों एवं आचार्यों ने कर्मग्रंथों एवं अन्य धार्मिक ग्रंथों में किया है। किन्तु आगमों में गुणस्थानक के बदले जीवस्थानक शब्द का प्रयोग देखने में आता है और आगमोत्तर कालीन ग्रंथों में जीवस्थान शब्द के लिए भूतग्राम शब्द प्रयुक्त किया गया है। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम समवायांग में जीवस्थान के नाम से इसका उल्लेख किया गया है। उसमें जीवस्थानों की रचना का आधार कर्मविशुद्धि कहा है और उसकी टीका में अभयदेवसूरिजी महाराज ने भी गुणस्थानों को ज्ञानावरणीय कर्मों की विशुद्धिजन्य बताया है। उनके मतानुसार आगम में जिन चौदह जीवस्थानों के नामों का उल्लेख है, वे ही नाम गुणस्थानों के हैं। वे चौदह जीवस्थान कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि भावाभावजनित अवस्थाओं से बनते हैं तथा परिणाम और परिणामी में अभेदोपचार से जीवस्थान का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध है। किन्तु वहाँ नामों का उल्लेख होते हुए भी उन्हें गुणस्थान नहीं कहा गया है। आवश्यकचूर्णि के अलावा तत्त्वार्थ इस सिद्धान्त का गुणस्थानक के नाम से विस्तृत उल्लेख पाया जाता है। दिगम्बर परम्परा में भी सर्वप्रथम समयसार, षट्खण्डागम, प्राकृत पंचसंग्रह, मूलाधार, भगवती आराधना, कर्मग्रन्थ, गोम्मटसार, राजवार्तिक आदि में गुणस्थानक पर विस्तृत चर्चा का उल्लेख पाया जाता है। गुणस्थान का पारमार्थिक अर्थ ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप जीव स्वभाव विशेष आत्मा के विकास की क्रमिक अवस्था आत्मिक शक्तियों के आविर्भाव की, उसके शुद्ध कार्यरूप में परिणत होते रहने की तरतम भावापन्न अवस्था में क्रमशः शुद्ध और विकास करती हुई आत्म-परिणति का स्थान अथवा कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्था में होने वाले परिणामों का स्थान। उन परिणामों से युक्त जीव उस गुणस्थानक वाले कहे जाते हैं। 361 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org