Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________ बौद्ध दर्शन में कर्मों को नियत विपाकी और अनियत विपाकी दोनों प्रकार का माना गया है। कुछ बौद्ध आचार्यों ने नियत-विपाकी और अनियत-विपाकी कर्मों में प्रत्येक को चार-चार भागों में विभक्त किया हैनियतविपाकी कर्म चार भेद 1. दृष्ट धर्म वेदनीय, 2. उपपद्यवेदनीय, 3. अपरपर्यायवेदनीय, 4. अनियतवेदनीय। इस प्रकार बौद्ध विचारक कर्मों की नियता एवं अनियता की तुलना जैन कर्म सिद्धान्त के निकाचित एवं दलिक कर्मों के साथ होती है। योगदर्शन के अनुसार कर्म का फल-विपाक, जाति, आयु और भोग से तीन प्रकार का होता है। योगदर्शन में जैनदर्शन की भांति कर्माशय को नियत विपाकी एवं अनियत विपाकी उभयविध माना है। योगदर्शन में कर्म की अनियतता पर अधिक बल दिया गया है। विपाक के सम्बन्ध में जैन मत में प्रत्येक कर्म का विपाक नियत है, वैसे योगदर्शन में नियत नहीं है। योग मत के अनुसार सभी संचित कर्म मिलकर उक्त जाति, आयु और भोगरूप विपाक के कारण बनते हैं।265 दुःख के हेतु अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश है। अतः जो कर्म अविद्या आदि के विरुद्ध होते हैं या जिनके द्वारा वे क्षीण होते हैं, वे पुण्यकर्म कहलाते हैं। जिन कर्मों द्वारा अविद्या आदि अपेक्षाकृत क्षीण हो जाते हैं, वे भी पुण्यकर्म कहलाते हैं और अविद्या के पोषक कर्म अपुण्य या अधर्म कर्म होते हैं।266 ___ धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध-ये दस धर्म, कर्म के रूप में गणित होते हैं।267 मैत्री तथा करुणा और परोपकार दान आदि भी अविद्या के कुछ विरोधी होने के कारण पुण्यकर्म होते हैं। क्रोध, लोभ और मोहमूलक हिंसा आदि पुण्य विपरीत कर्म समूह को पापकर्म कहा जाता है। गौडपादजी कहते हैं कि यम, नियम, दया और दान में धर्म या पुण्य कर्म है।258 अशुभ कर्मों की विपाक शक्ति के तारतम्य की अपेक्षा से चार भेद हो जाते हैं-लता, दारु, अस्थि और शैल अर्थात् लता आदि में जैसे उत्तरोत्तर अधिकाधिक कठोरता है, वैसे ही उनकी विपाक शक्ति में उत्तरोत्तर तीव्रता समझना चाहिए। लेकिन शुभ कर्मों की विपाक शक्ति पुण्य और अशुभ कर्मों की विपाक शक्ति पाप, ऐसी पुण्य-पाप रूप से शक्ति दोनों प्रकार की होती है। इसीलिए उन दोनों प्रकारों में भी प्रत्येक के चार-चार भेद हैं। पुण्यरूप विपाक शक्ति के गुड़, खाण्ड, शर्करा और अमृत-ये चार भेद हैं तथा नीम, कांजीद, विष और हलाहल-ये चार भेद पापरूप विपाक शक्ति के होते हैं-ऐसा उपाध्यायज़ी महाराज ने बताया है। 209 सभी प्रकार के कर्मों के शुभ या अशुभ रूप विपाक फल का भोग जीव करता है। जैसे कि ज्ञानावरणादि कर्मों का जब तीव्र विपाक से उदय होता है, तब ये सम्यक्त्व रूप पुद्गल मिथ्यात्व के प्रदेशरूप होने से अपने स्वभाव से युक्त हो जाते हैं तथा नरकादि गति उदय होने पर जीव तत्रस्थ भयंकर वेदना भोगता है। आयु कर्म का उदय होने पर जीव पूर्वभव का त्याग कर नवीन भव धारण करता है। इसी प्रकार अन्य कर्मों के विपाक के लिए भी जानना चाहिए। लेकिन प्रत्येक कर्म के विपाक फल में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भी सहकारी कारण है। जैसे कि अनुपूर्वी नामकर्म का उदय मरण के बाद पूर्व शरीर को छोड़कर परभव का शरीर ग्रहण करने के लिए जाने पर आकाश प्रदेशों की श्रेणी 359 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org