Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ वेदनीय कर्मबंध के कारण 'साता वेदनीय' कर्मबंध के छह कारण हैं1. प्राण, भूत, जीव, सत्वों को अपनी असत् प्रवृत्ति से दुःख न देना। 2. प्राण, भूत, जीव, सत्वों को हीन न बनाना। 3. प्राण, भूत, जीव, सत्वों के शरीर को हानि पहुंचाने वाला शौक पैदा न करना। 4. प्राण, भूत, जीव, सत्वों को न सताना। 5. प्राण, भूत, जीव, सत्वों पर लाठी आदि से प्रहार न करना। 6. प्राण, भूत, जीव, सत्वों को परितापित न करना। उक्त कामों को करने से सातावेदनीय कर्म का बंध होता है अर्थात् उपरोक्त कारण से विपरीत कारण असातावदेनीय बंध के हैं। 4. मोहनीय कर्म यह कर्म आत्मा को मोहित कर लेता है, विकृत बना देता है, जिससे हित-अहित का भान नहीं रहता और सदाचरण में प्रवृत्ति नहीं करने देता है। स्व-पर विवेक जीव का सम्यक्त्व गुण तथा अनन्तचारित्र गुण की प्राप्ति में जीव को बाधा पहुंचाने वाले कर्म को मोहनीय कर्म कहते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है-कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति।" अर्थात् कर्म मोह से उत्पन्न होता है। मोह की ही लीला है समस्त संसार। इसीलिए मोहनीय कर्म को कर्मों का राजा कहा गया है। आठ कर्मों में मोहनीय कर्म सबसे बलवान और भयंकर होता है। अतः मोक्षाभिलाषी प्रत्येक प्राणी को सबसे पहले इसी कर्म को नष्ट करने का प्रयास करना पड़ता है। सेनापति के मरते ही जिस प्रकार सारी सेना भाग जाती है, ठीक उसी प्रकार मोहनीय कर्म के नष्ट होते ही सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं। जो कर्म आत्मा को मोहित करता है, मूढ बनाता है, वह मोहनीय कर्म है। इस कर्म के कारण जीव मोहग्रस्त होकर संसार में भटकता है। समस्त दुःखों की प्राप्ति मोहनीय कर्म से ही होती है। इसलिए इसे अरि या शत्रु भी कहते हैं। अन्य सभी कर्म मोहनीय कर्म के अधीन हैं। मोहनीय कर्म राजा है तो शेष कर्म प्रजा। जैसे राजा के अभाव में प्रजा कोई कार्य नहीं कर सकती, वैसे ही मोहनीय के अभाव में अन्य कर्म अपने कार्य में असमर्थ रहते हैं। वह आत्मा के वीतराग भाव तथा शुद्ध स्वरूप को विकृत करता है, जिससे आत्मा रागद्वेषादि विकारों से ग्रस्त हो जाता है। यह कर्म स्व-पर विवेक एवं स्वरूप रमण में बाधा डालता है।16 उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी टीका में मोहनीय कर्म को परिभाषित करते हुए कहा है मोहयति सद्सदविवेकविकलं करोत्यात्मानमिति मोहनीयं / / / जो सद्-असद् विवेक को विकल करता है, वो मोहनीय कर्म है।।18 मोहनीय कर्म की उत्तर-प्रकृति मोहनीय कर्म के उदय से जीव अपने हिताहित को नहीं समझ पाता है। उनके मुख्य दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं-1. सम्यक्त्व मोहनीय, 2. मिथ्यात्व मोहनीय, 3. मिश्र मोहनीय। 341 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org