Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ दुविहं च मोहणीयं दसणमोहं चरितमोहं च। देसणमोहं तिविहं सम्मेयर मीसवेयणियं / / / " दर्शन से यही सम्यक् दर्शन अभिप्रेत है। तत्त्वार्थ श्रद्धान् रूप सम्यग् दर्शन को जो मोहित करता है, वह दर्शनमोहनीय कहलाता है। वह तीन प्रकार का है। 20 उपाध्याय यशोविजय ने भी कम्मपयडी की टीका में मोहनीय कर्म की प्रकृति को बताते हुए कहा हैमिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वं षोमज्ञ कषाया नव नोकषाया श्वेत्यष्टाविशतिर्मोहनीय प्रकृतयः / / मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, मिश्र, 16 कषाय, 9 नोकषाय-इस प्रकार 28 प्रकृति मोहनीय की है। दर्शन मोहनीय-सम्यक् दृष्टि को विकृत करने वाले कर्म पुद्गल। सम्यक्त्वमोहनीय-औपशमिक और क्षायिक सम्यक् दृष्टि से प्रतिबंधक कर्म पुद्गल यानी जिन प्रणित तत्त्व की सम्यक् श्रद्धा। मिथ्यात्व मोहनीय-क्षायोपशमिक के प्रतिबंधक कर्मपुद्गल। अर्थात् जिन प्रणीत तत्त्व की अश्रद्धा। मिश्र मोहनीय-जिन प्रणीत तत्त्व श्रद्धा की दोलायमान दशा उत्पन्न करने वाले कर्म पुद्गल। चारित्र मोहनीय-चरित्र विचार उत्पन्न करने वाले कर्म पुद्गल। कषाय मोहनीय-राग-द्वेष उत्पन्न करने वाले कर्म पुद्गल। 1. अनन्तानुबंधी, 2. अप्रत्याख्यानी, 3. प्रत्याख्यानी, 4. संज्वलन। नोकषाय मोहनीय-कषाय को उत्तेजित करने वाले कर्म पुद्गल1. वेदत्रिक-1. पुरुषवेद, 2. स्त्रीवेद, 3. नपुंसक वेद। 2. हाष्यादिषटक-1. हास्य, 2. रति, 3. अरति, 4. भय, 5. शोक, 6. जुगुप्सा / / . कषाय मोहनीय के 16, नोकषाय के 9 और दर्शनमोहनीय के तीन-28 भेद हुए मोहनीय कर्म कषाय मोहनीय दर्शन चारित्र मोहनीय नोकषाय मोहनीय मोहनीय 1. अनंतानुबंधी-क्रोध, मान, माया, लोभ 2. अप्रत्याख्यानी-क्रोध, मान, माया, लोभ 3. प्रत्याख्यानी-क्रोध, मान, माया, लोभ 4. संचलन-क्रोध, मान, माया, लोभ ___16+6+3+3=28 प्रकृति हास्यादिषटक-वेदत्रिक 1. हास्य, रति 1. स्त्रीवेद 2. अरति, शक 2. पुरुषवेद 3. भय, जुगुप्सा 3. नपुंसकवेद 1. सम्यक्त्व मोहनीय 2. मिश्र मोहनीय 3. मिथ्यात्व मोहनीय 342 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org