Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ कर्म और जीव का अनादि सम्बन्ध कर्म और जीव का संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है। जब वह अव्यवहार राशि निगोद में आया तब भी कर्म से वह संयुक्त था तथा व्यवहार राशि में आने के बाद भी उसकी विकास दृष्टि जागृत हुई है। लेकिन अभी भी संसार में है वहाँ तक कर्मों से जुड़ा हुआ है अर्थात् कर्मों की आदि कब हुई-इस कथन को हम किसी भी युक्ति से चरितार्थ नहीं कर सकते, क्योंकि आगमग्रंथों में उसकी अनादि के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं जीव और आत्मा का सम्बन्ध कब से है?-यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। इस सन्दर्भ में आचार्य भिक्षु ने एक सुन्दर प्रश्नोत्तर रूप संवाद प्रस्तुत किया है प्रश्न-1. क्या जीव और कर्म आदि हैं? उत्तर-नहीं, क्योंकि ये कभी उत्पन्न हुए ही नहीं। अर्थात् अनादि हैं। प्रश्न-2. पहले जीव और बाद में कर्म हुए-क्या यह बात ठीक है? उत्तर-नहीं, क्योंकि यदि पहले जीव हुआ तो कर्म रहित अवस्था में वह कहां रहा? मुक्त जीव __ कभी संसार में वापिस आता नहीं। प्रश्न-3. पहले कर्म, बाद में जीव हुए-क्या यह बात ठीक है? उत्तर-नहीं, क्योंकि कर्म जीव के करने से होते हैं अतः यदि पहले जीव नहीं था, तो कर्म किए किसने? किये बिना कर्म होते नहीं। प्रश्न-4. जीव और कर्म एक साथ उत्पन्न हुए-क्या यह बात ठीक है? उत्तर-नहीं, क्योंकि इन्हें उत्पन्न हुए मानने से प्रश्न होगा कि इन्हें उत्पन्न करने वाला कौन है। इनका कोई उत्पादक नहीं है, अतः ये एक साथ उत्पन्न हुए-ऐसा कहना ठीक नहीं है। प्रश्न-5. क्या जीव कर्म मुक्त है, यह बात ठीक है? उत्तर-नहीं, क्योंकि यदि जीव कर्ममुक्त हो, तो क्रिया किसलिए करेगा? प्रश्न-6. तो फिर जीव और कर्म का मिलाप कैसे होता है? उत्तर-जीव और कर्म दोनों का अनुबंध अनादिकाल से अपश्चानुपूर्वी अर्थात् न पहले, न पीछे-चला आ रहा है। ज्यों तेल और तिल, घृत और दूध, धातु और मिट्टी दोनों परस्पर मिले हुए हैं, त्यों जीव और कर्म का बंध प्रवाहरूप से अनादि काल से है। इस संवाद से यह भलीभांति स्पष्ट है कि जैन दर्शन ने आत्मा और कर्म के अस्तित्व को आदि रहित मानकर एक साथ अनेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर दिया है। आदि मानने से ही उपर्युक्त सारी शंकाएँ खड़ी होती हैं, जिनका समाधान कठिन है। ईश्वरवाद के सिद्धान्त में भी मूलतः ईश्वर का अस्तित्व अनादि ही माना जाता है। आधुनिक विज्ञान भी मूल उपादान को अनादि ही स्वीकार करता है। आइन्स्टीन के अभिमत को प्रस्तुत करते हुए डॉ. लिंकन बारनेट अपनी पुस्तक दी युनिवर्स एण्ड डॉ. आइन्स्टाइन में लिखते हैं-"विश्व के निर्माण का चिन्तन विश्व की आदि को अनन्त भूत में ढकेल देता है।" इस प्रकार जैन दर्शन का अनादि जीव कर्म सम्बन्ध का सिद्धान्त सहज बुद्धिगम्य हो जाता है। 356 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org