________________ कर्म पुनर्जन्म का मूल कारण है। प्रत्येक आत्मप्रदेश के साथ कर्मपुद्गलों का संयोग होता है और कर्म के द्वारा उत्पन्न प्रभाव से आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में गमन करती रहती है। कर्म अपने आप में जड़ है, फिर भी आत्मा के साथ अबद्ध होने से उनमें आत्मा को प्रभावित करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। कर्म को हम चैतसिक भौतिक बल के रूप में मान सकते हैं। यही बल आत्मा को पुनर्जन्म लेने के लिए बाध्य करता है। अनादिकाल से प्रत्येक जीव जन्म-मृत्यु की श्रृंखला से गुजरता हुआ अपना अस्तित्व बनाए रखता है। यही जैनदर्शन का पुनर्जन्मवाद का सिद्धान्त है। अन्य दर्शनों की दृष्टि में पुनर्जन्म आस्तिक या अध्यात्मवादी एवं नास्तिक या भौतिकवादी दर्शन पुनर्जन्म के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत करते हैं। सभी अस्तित्ववादी या आस्तिक दर्शन आत्मा को चैतन्यशील जड़ पदार्थ से सर्वथा स्वतंत्र एवं अनश्वर अर्थात् मृत्यु के पश्चात् भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने वाला स्वीकार करते हैं, जबकि भौतिकवादी नास्तिकदर्शन आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार नहीं करते तथा मृत्यु के पश्चात् उसके अस्तित्व को अस्वीकार करते हैं। न्यायशास्त्र एवं दर्शनशास्त्र के ग्रंथों में इन दोनों मतों के प्रतिपादकों के पारस्परिक वाद-विवाद की विस्तृत चर्चाएँ उपलब्ध होती हैं। ये चर्चाएँ तर्क, अनुमान आदि प्रमाण के आधार पर की गई हैं। दोनों पक्षों की ओर से अपने-अपने मत को स्थापित कर विपक्ष को खण्डित करने की चेष्टा की गई है। पुनर्जन्म की अवहेलना करने वाले व्यक्तियों की प्रायः दो प्रधान शंकाएँ सामने आती हैं1. यदि हमारा पूर्वभव होता, तो हमें उसकी कुछ-न-कुछ स्मृतियाँ होती। 2. यदि दूसरा जन्म होता तो आत्मा की गति एवं आगति हम क्यों नहीं देख पाते?18 पहली शंका का समाधान हम बाल्यजीवन की तुलना से ही समाधान कर सकते हैं। बचपन की घटनाएँ हमें स्मरण नहीं आती तो क्या इसका अर्थ होगा कि हमारी शैशव अवस्था हुई नहीं थी? एक दो वर्ष के नव शैशव की घटनाएँ स्मरण नहीं होती तो भी अपने बचपन में किसी को संदेह नहीं होता। वर्तमान जीवन की यह बात है, तब फिर पुनर्जन्म को हम इस युक्ति से कैसे हवा में उड़ा सकते हैं? पुनर्जन्म की भी स्मृति हो सकती है, यदि उतनी शक्ति जागृत हो जाए। जिसे जाति स्मृति-ज्ञान हो - जाता है, वह अनेक जन्मों की घटनाओं का साक्षात्कार कर सकता है। दूसरी शंका एक प्रकार से नहीं के समान है। आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता। उसके दो कारण हैं1. वह अमूर्त है, इसलिए दृष्टिगोचर नहीं होता, 2. वह सूक्ष्म है, इसलिए शरीर में प्रवेश करता हुआ या निकलता हुआ उपलब्ध नहीं होता। इससे उसका अभाव थोड़े ही माना जा सकता है। अविचार में कुछ नहीं दिखता, क्या यह मान लिया जाए कि यहाँ कुछ भी नहीं है। ज्ञान शक्ति की एकदेशीयता से किसी भी सत् पदार्थ का अस्तित्व स्वीकार न करना उचित नहीं होगा। कर्म सिद्धान्त के साथ पुनर्जन्म की अवधारणा भी जुड़ी हुई है। उनका उल्लेख आचारांग,250 सूत्रकृतांग,251 उत्तराध्ययन,252 स्थानांग,255 भगवती,254 प्रज्ञापना आदि में उपलब्ध हो जाता है। अर्थात् सारांश रूप में यह कहते हैं कि कर्म संसारी सन्तति का मूल कारण है-जब कर्म का विच्छेद होगा, तब ही जन्म-मरण की परम्परा का अंत होगा, अन्यथा पुनर्जन्म निश्चित ही है। 355 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org