________________ कर्मग्रन्थ के अनुसार अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य या तिर्यञ्च, देशविरत श्रावक, सरागी साधु, बाल-तपस्वी और इच्छा नहीं होते हुए भी परिस्थितिवश भूख-प्यास आदि को सहन करते हुए अकाम निर्जरा करने वाले व्यक्ति देवायु का बन्ध करते हैं। 6. नाम कर्म जीवों के नाना मिनोतीति नाम-जो जीव के चित्र-विचित्र रूप बनाता है, वह नामकर्म है। जीवों के विचित्र परिणाम के निमित्तभूत कर्मों के हेतुस्वरूप कर्म नामकर्म है। जीव के शुद्ध स्वभाव को आच्छादित करके उसे मनुष्य, तिर्यंच, देव और नरकादि में ले जाने वाला कर्म नामकर्म है।" अथवा जिस कर्म के उदय से चारों गतियों को प्राप्त करके अच्छी-बुरी विविध पर्यायें प्राप्त करता है अथवा जो आत्मा को नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता है, वह नामकर्म है अथवा जो नाना प्रकार की रचना निर्वाचित करता ह146 या जिस कर्म के उदय से जीव गति आदि नाना पर्यायों का अनुभव करता है अथवा उसके शरीर आदि बनते हैं, उसे नामकर्म कहते हैं। ____आचार्य हरिभद्र सूरि ने श्रावकप्रज्ञप्ति की टीका में नामकर्म की व्याख्या इस प्रकार की है तथागत्यादि शुभाशुभनमनाम्नामयतीति नाम। 48 नामयतीति नाम इस निरुक्ति के अनुसार जो कर्म शुभ या अशुभ गति आदि पर्यायों के अनुभव के प्रति नमाता है, उसे नामकर्म कहा जाता है। उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी की टीका में नामकर्म को परिभाषित करते हुए कहा है नामयति गत्यादिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम। 49 . नामयति अर्थात् गत्यादि पर्यायों के अनुभव प्रति जीव को ले जाने वाले कर्म को नामकर्म कहते हैं।150 नामकर्म की उत्तर-प्रकृति . नाम कर्म शुभ भी हो सकते हैं और अशुभ भी। शुभ नामकर्म में सुन्दर-सुडौल, आकर्षक व प्रभावशाली शरीर बनता है तथा अशुभ नामकर्म के उदय से बदसूरत, बेडोल, कुरूप आदि शरीर की रचना होती है। नामकर्म की उत्तर-प्रकृतियों की संख्या संक्षेप व विस्तार दृष्टि से शास्त्रों में बयालीस, सड़सठ, तिरानवे और एक-सौ तीन बताई है। इस प्रकार संक्षेप दृष्टि से नामकर्म के 42 भेद माने गये हैं। ___ उपाध्याय यशोविजय ने भी कम्मपयडी की टीका में नामकर्म की उत्तर-प्रकृति का वर्णन करते हुए कहा है चतुर्दश पिण्मप्रकृतयोऽष्टाऽप्रतिपक्षाः प्रत्येक प्रकृतयस्त्रसाधा दश च सप्रतिपक्षा विंशतिरिति द्विचत्वादिंशन्नामकर्म प्रकृतयः / / 14 पिण्ड प्रकृतियाँ, 8 प्रत्येक प्रकृति, त्रसादी 10, प्रतिपक्ष-20-42 प्रकृति नामकर्म की है। नामकर्म के मुख्य 42 भेद, उपभेद 93 या 103 होते हैं। 345 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org