________________ वंचित रखकर महल के अंदर प्रवेश में रुकावट डालता है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्मदर्शन से वंचित रखकर मुक्ति महल में प्रवेश करने में रुकावट डालता है। अथवा दर्शनावरण कर्म-वस्तुओं के सामान्य बोध को रोकता है अथवा दर्शनावरण कर्म आत्मा के दर्शन गुण को प्रकट नहीं होने देता अथवा द्वारपाल के द्वारा रोके गये मनुष्य को राजा नहीं देख सकता, उसी प्रकार जीवरूपी राजा दर्शनावरण कर्म के उदय से पदार्थ और विषय को नहीं देख सकता है। इस कर्म से जीव का अनन्त दर्शन आवृत बना हुआ रहता है। 3. वेदनीय कर्म-वेदनीय कर्म मधुलिप्त असिधार की तरह है। जैसे शहद से लिपटी तलवार को चाटने से पहले सुख का अनुभव होता है लेकिन जिह्वा कट जाने से दुःख का भी अनुभव होता है, उसी प्रकार वेदनीय कर्म के उदय से संसारी जीव को शाता और अशाता, सुख और दुःख दोनों प्राप्त होता है। कहा गया है कि खणमित सुकखा, बडुकाल दुकखा। सांसारिक सुख अल्पकाल का और दुःख दीर्घकाल तक रहता है। शहद को चाटने के समान शाता वेदनीय और जीभ कटने की तरह अशाता वेदनीय है।220 अर्थात् वेदनीय कर्मजन्य वैषयिक सुख वास्तव में दुःख का रूप है। यह कर्म जीव के अव्याबाध अनन्त सुख को रोकता है।" ... 4. मोहनीय कर्म-इसका स्वभाव मदिरा के समान है-मज्ज व मोहनीयं / मदिरा पीने से व्यक्ति अपने कर्तव्याकर्तव्य, हिताहित व अच्छे-बुरे का भान भूल जाता है, वैसे ही मोहनीय कर्म के प्रभाव से जीव सत्-असत्, अच्छे-बुरे के विवेक से शून्य होकर परवश हो जाता है। वह सांसारिक विवादों में फंस जाता है। अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर स्त्री-पुत्र, धन-सम्पत्ति आदि पर पदार्थों को अपना समझ लेता है। उनकी प्राप्ति होने पर वह सुखी होता है तथा चले जाने पर दुःखी होता है। ममकार और अहंकार से भरा मोहनीय कर्म-वेष्टिक जीव। इनके संयोग से सुख तथा वियोग से दुःख और शोक का अनुभव करता है अथवा मोहनीय कर्म के उदय से जीव को तत्त्व-अतत्त्व का भेद-विज्ञान नहीं हो पाता। वह संसार के राग-द्वेषात्मक प्रवृत्तियों में उलझ जाता है। 5. आयुष्य कर्म-इनका स्वभाव बेड़ी के समान है-आउ हडिसरिसं।25 जैसे अपराधी को दण्ड देने पर अमुक समय तक कारागार में डाल दिया जाता है। अपराधी तो चाहता है कि मैं जेल से मुक्त हो जाऊँ, लेकिन इच्छा रखते हुए वह अवधि पूरी हुए बिना जेल से छूट नहीं सकता, वैसे ही आयुष्य कर्म जब तक रहता है, तब तक दुःखी से भी दुःखी जीव चाहते हुए भी प्राप्त शरीर से वहाँ तक छूट नहीं सकता है तथा सुखी जीव इच्छा रखते हुए भी आयु के पूर्ण होने पर एक क्षण के लिए भी जिन्दा नहीं रह सकता है। आयुष्य कर्म का कार्य सुख-दुःख देना नहीं है, किन्तु निश्चित समय तक किसी एक भव में रोके रहना मात्र है।226 इसलिए कह सकते हैं कि इस कर्म की तुलना कारागार से की है। जैसे स्वयं महावीर परमात्मा को निर्वाण के समय इन्द्र महाराज ने आकर विनती की थी कि हे परम तारक परमात्मा! आप तो मोक्ष में जा रहे हैं पर आपके सन्तानिकों को दो हजार वर्ष तक पीड़ा होगी। अब दो घड़ी यह भस्मग्रह शेष रहा है। इसलिए दो घड़ी तक अपनी आयु बढ़ा ले तो भस्मग्रह उतर जाने के कारण, पश्चात् के आपके सन्तानिकों अर्थात् साधु-साध्वी को शाता उत्पन्न होगी। यह सुनकर भगवान ने कहा है कि हे इन्द्र! यह बात न भूतो न भविष्यतो। तुम दो घड़ी आयु बढ़ाने के लिए कह रहे हो पर मुझसे एक समय मात्र भी आयु बढ़ाई नहीं जा सकती। टूटी आयु किसी से भी बढ़ाई नहीं जा सकती।228 351 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org