Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ * रूपी चक्र में भ्रमण करते हुए जीव के भावों से कर्मों का बन्ध तथा कर्मबन्ध से जीव के भाव, सन्तति की अपेक्षा अनादि से चला आ रहा है। यह चक्र अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि अनन्त है तथा भव्य जीवों की अपेक्षा अनादि सांत। अनादि का अन्त कैसे ऐसा नहीं है कि इस अनादि कर्म बंध का अन्त असम्भव ही हो। इस विवेचन में यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि कर्मचक्र रागद्वेष के निमित्त से घड़ी यंत्र की भांति सतत चलता रहता है तथा जब तक रागद्वेष और मोह के वेग में कमी नहीं आती, तब तक यह कर्मचक्र निर्बाध रूप से चलता रहता है। रागद्वेष के अभाव में क्रियाएँ कर्मबन्ध नहीं करातीं। इस बात को स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा है कि कोई व्यक्ति अपने शरीर को तेल से लिप्त कर धूलपूर्ण स्थान में जाकर शास्त्र संचालन करता है और ताड़, केला, बांस आदि के वृक्षों का छेदन करता है। वस्तुतः देखा जाए तो उस व्यक्ति का शास्त्र संचालन शरीर में धूल चिपकाने का सही कारण नहीं है। वास्तविक कारण तो तेल का लेप ही है, जिससे धूल का सम्बन्ध होता है। मूल कारण है कि व्यक्ति बिना तेल लगाए पूर्वोक्त क्रियाएँ करता है तो धूल नहीं लगती। इसी प्रकार राग-द्वेष रूपी तेल से लिप्त आत्मा में कर्मरज आकर चिपकती है और आत्मा को मलिन बनाकर इतना पराधीन कर देती है कि अनन्त शक्ति सम्पन्न जीवात्मा कठपूतली की तरह कर्मों के ईशारे पर नाचा करती है। जीव और कर्म को सन्तति की अपेक्षा अनादि मानते हुए भी पर्याय की दृष्टि से सादि माना गया है। बीज और वृक्ष के सम्बन्ध पर दृष्टि डालें तो संतति की अपेक्षा उनका कार्य-कारण भाव अनादि होगा। जैसे अपने सामने लगे आम के वृक्ष का कारण हम उस बीज को कहेंगे, यदि हमारी दृष्टि प्रतिनियत आम के पेड़ तक ही जाती है तो हम उसे उस बीज से उत्पन्न कहकर सादि सम्बन्ध सूचित करेंगे। किन्तु इस बीज के उत्पादक अन्य वृक्ष तथा अन्यवृक्ष के जनक अन्यबीज की परम्परा पर दृष्टि डालें तो उस दृष्टि से यह सम्बन्ध अनादि मानना होगा। कुछ दार्शनिकों का मानना है कि जो अनादि है, उसका अन्त नहीं हो सकता, किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। यह कोई अनिवार्य न्हीं है कि अनादि वस्तु अनन्त ही है। वह अनन्त भी हो सकती है तथा विरोधी कारण आ जाने पर अनन्त होने वाले सम्बन्ध का मूलोच्छेद भी किया जा सकता है। कहा भी है कि दग्धे बीजे यथात्यन्ते प्रादुर्भवति नाऽकुरः। कर्मबीजं तथा दग्धेन रोहति भवाऽकुरः।।" अर्थात् बीज के जल जाने पर पुनः नवीनवृक्ष का निमित्त बनने वाला अंकुश नहीं होता। उसी प्रकार कर्मबीज के भीष्म हो जाने पर भवरूपी अंकुश उत्पन्न नहीं होता। इस प्रकार बीज और वृक्ष की संतति की तरह जीव और कर्मों का परस्पर निमित्त नैमितिक सम्बन्ध है। जीव के अशुद्ध परिणामों के निमित्त से पुद्गल वर्गणाएँ कर्म रूप परिणत हो जाती हैं तथा पुद्गल कर्मों के निमित्त से जीव के अशुद्ध परिणाम होते हैं। फिर भी जीव कर्मरूप नहीं होता तथा कर्म जीवरूप नहीं होता। दोनों के निमित्त से संसारचक्र चलता रहता है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि राग-द्वेष से युक्त संसारी जीव शुभ या अशुभ भाव में रमण करता है तब कर्म रूपी पुद्गल उससे आकृष्ट होकर आत्मा के साथ चिपक जाते हैं और अच्छा-बुरा फल देते हैं। उन्हीं का नाम कर्म अर्थात् कर्म का स्वरूप है। 327 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org