Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ प्रकृति नाम भी योग्य है। उससे मोहनीय कर्म संसार में भ्रमण का मुख्य हेतु होने से कर्म का प्रधान नाम भी योग्य है। अन्य दर्शनकार उन्हें भिन्न-भिन्न विशेषणों का उपचार करके एक-दूसरे से अलग नाम रखते हैं। जैसे कि कुछ कर्म को मूर्त कहते हैं, कुछ उसे अमूर्त कहते हैं। यह अपने-अपने दर्शन के आग्रह से ही कहते हैं, तो भी वे सभी कर्म को संसार में बार-बार भ्रमण का कारण तो अवश्य स्वीकारते हैं। उसमें जो भेद करते हैं, वह विशेष प्रकार से श्रेष्ठ ज्ञानरूप विवेक के अभाव में ही करते हैं परन्तु बुद्धिमान लोग जिस प्रकार देवों में नामभेद होने पर भी गुण के कारण अभेद रूप में देखते हैं, उसी प्रकार कर्म विशेष में भी नाम भेद होने पर भी संसार हेतु समान होने के कारण कर्म, वासना, पाश, प्रकृति आदि भेद होने पर भी परमार्थ रूप से भेद न होने से यह भेद मानना अवास्तविक है। अतः प्रत्येक साधक को यम, नियम द्वारा उस कर्म को दूर करने का ही प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए। कर्म का स्वरूप यह सम्पूर्ण विश्व पुद्गल द्रव्य से अगाध भरा हुआ है, जिसमें परमाणुओं का पूर्ण गलन, विध्वंसन होता है। वह पुद्गल द्रव्य कहलाता है, जो निर्जीव है, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श सहित रूपी है, रजकण के समान अणुसमूह रूप है। अणुओं के समूह को स्कन्ध कहते हैं। एक-एक स्कन्ध में दो से लेकर यावत् संख्यात, असंख्यात और अनन्त अणुओं के समूह भी होते हैं, उसी के वर्गीकरण रूप जैन शास्त्रों में आठ भेद दिखाये हैं, जिसे औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, श्वासोच्छ्वास, भाषा, मन और कार्मण वर्गणा कहते हैं। पीछे-पीछे रहने वाली वर्गणा पूर्व-पूर्व की वर्गणा में अनंतानंत अधिक परमाणुओं की बनी हुई होती है। उसमें कार्मण वर्गणा के अणु कर्म बनने के योग्य वर्गणा कहलाती है। . कार्मण वर्गणा आत्मा के साथ चिपकने के बाद भी उसे कर्म कहते हैं। जिस प्रकार दुनिया में हवा के साथ उड़ने वाली धूल को रज कहते हैं, परन्तु वही रज तेल आदि दाग वाले वस्त्र पर लगने पर और वस्त्र के साथ एकमेक हो जाने पर मैल कहलाता है। रज ही मैल बनता है। उसी प्रकार कार्मण वर्गणा ही कर्म बनता है। दूध-पानी, लोह-अग्नि, जिस प्रकार एकमेक होता है, वैसे ही आत्मा और कर्म एकमेक होते हैं और आत्मा के प्रदेश में व्याप्त होते हैं स्नेहाऽभ्यकत शरीरस्य रेणुना शिलष्यते यथा गात्रम्। रागद्वेषाकिलन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येव / / प्रशमरति में उमास्वाति ने भी इसी परिप्रेक्ष्य में यह श्लोक उल्लिखित किया है। जैसे तेल का मालिश करके बाजार में घूमने पर धूल के रजकण चिपकने पर सारा शरीर भर जाता है, उसी तरह चौदह रासलोक के इस ब्रह्माण्ड में अनंतानंत कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणु भरे पड़े ये राग-द्वेष करने वाले जीव पर सतत् चिपकते जाते हैं। ये अपनी तरफ से स्वयं नहीं चिपकते परन्तु राग-द्वेष की प्रवृत्ति करके स्वयं चुम्बकीय शक्ति से उन्हें खींचते रहते हैं और जैसे आटे में पानी डालकर पिण्ड बनाया जाता है, वैसे ही जीव अपने राग-द्वेष के शुभाशुभ अध्यवसाय से उन कार्मण वर्गणाओं के पुद्गल परमाणुओं को पिण्ड रूप में बनाकर कर्म रूप में परिणमन करते हैं। ऐसे राग-द्वेष के अध्यवसाय कदम-कदम पर बनते रहते हैं, क्योंकि उन्हें वैसे निमित्त मिलते रहते हैं ___ एवं अट्ठविहं कम्मं राग द्वेष समज्जि।" इस तरह राग द्वेष से उपार्जित आठों ही कर्म हैं अर्थात् आठों ही कर्म राग-द्वेष से उपार्जित होते हैं। 325 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org