Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ लिए प्रारब्ध, सत्ता के लिए संचित और बन्ध के लिए क्रियामण शब्द का प्रयोग हुआ है अर्थात् प्रारब्ध, संचित और क्रियामण क्रमशः उदय, सत्ता और बन्ध के ही अपर नाम हैं। वेदान्त दर्शन में कर्म के प्रारब्ध कार्य एवं अनारब्ध कार्य-ये दो भेद किये हैं। यद्यपि इतर दर्शनों के कर्मविपाक का कुछ-न-कुछ संकेत अवश्य मिलता है। अच्छा कर्म और बुरा कर्म मानने की दृष्टि से बौद्ध और योगदर्शन में कृष्ण, शुक्ल, कृष्णशुक्ल और शुक्लकृष्ण-ऐसे चार भेद किये हैं कर्माशुक्ला कृष्णं योगिनस्त्रि विधमितरेषाम् / योगियों के कर्म अशुक्लाकृष्ण हैं परन्तु दूसरों के कर्म त्रिविध हैं। भाष्य में इसका वर्णन विस्तार से मिलता है। ' योगदर्शन में कर्माशय के दो भेद किये गए हैं, जैसे कि ___ कलेशमूलः कर्माक्षयोः द्रष्टाद्रष्ट जन्मवेदनीयः / / कलेशमूलक कर्माशय दो प्रकार का है-दृष्टि जन्म वेदनीय और अदृष्ट जन्म वेदनीय। न्यायवार्तिककार ने कर्मविपाक को अनियत बताया है। कर्म का फल इसी लोक में या परलोक में या जात्यन्तर प्राप्त हो, ऐसा कोई नियम नहीं है। कर्म के अन्य सहकारी कारणों का संविधान न हो तथा सन्निहित कारणों में भी कोई प्रतिबन्धन न हो तब कर्म अपना फल प्रदान करता है। परन्तु यह नियम कब पूरा हो, उसका निर्णय होना कठिन है। कर्म की गति दुर्विज्ञेय है। अतः मनुष्य उस प्रक्रिया का पार नहीं पा सकता। . इस प्रकार इतर दर्शनों में भी विपाक और विपाककाल की दृष्टि से कर्म के कुछ भेद बताये गये हैं लेकिन जैन ग्रंथों में कर्म के भेद-प्रभेदों को व्यवस्थित वर्गीकरण एक ही दृष्टि से नहीं अपितु विविध अपेक्षाओं, स्थितियों आदि को लक्ष्य में रखकर किया गया है। वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। जैन दर्शन में भी विपाकों को दृष्टि में रखकर कर्मों के भेद गिनाये हैं लेकिन विपाक के होने न होने, अमुक समय में होने आदि की दृष्टि से जो भेद हो सकते हैं उन्हें विविध दशाओं के रूप में चित्रित किया गया है कि कर्मों के अमुक-अमुक भेद हैं और अमुक अवस्थाएँ होती हैं। किन्तु अन्य दर्शनों में इस प्रकार का श्रेणी विभाजन नहीं पाया जाता है। जैन वाङ्मय में कर्म के भेद-प्रभेदों का अत्यन्त विस्तार से विवेचन किया गया है। जैनागम में सर्वमान्य द्वादशांगी, जिसमें चौदह पूर्व समाविष्ट हैं, जिसका आठवां कर्मवाद पूर्व है, जिसमें कर्म का गहनता-गंभीरता से विश्लेषण किया गया है तथा यह सर्वज्ञ कथित होने से निःशंकित है और उसी कारण आज दिन तक कर्म-विवेचन का स्वरूप वैसा ही चला आ रहा है, क्योंकि सर्वज्ञ राग-द्वेष से विरक्त होने से उनका कथन निष्पक्ष होता है, जबकि अन्य दर्शनों में वैसा अभाव होने के कारण अनेक विचारधाराएँ प्रवाहित होती रहती हैं लेकिन जैनदर्शन में अस्खलित रूप से वही धारा प्रवाहित होती रहेगी। जैसे कि आगम में कर्म के प्रधानतया आठ भेद बताये हैं तथा 158 उत्तर प्रकृतियों का विवेचन किया है। वैसे तो आत्मा में अनन्त गुण हैं, जिसमें से कुछ सामान्य और कुछ असामान्य, जो गुण जीव में तथा उसके अतिरिक्त में भी पाये जाते हैं, वे प्रमेयत्व, प्रदेशत्व आदि साधारण गुण कहे जाते हैं तथा जो जीव में ही पाये जाते हैं, जैसे-सुख, ज्ञान, दर्शन, चैतन्य आदि ये असामान्य गुण हैं। 335 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only