Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ प्रकृतिबन्ध आदि उक्त चारों प्रकारों का स्वरूप शास्त्रों में दिये गये लड्डुओं के दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट होता है। मोदक का दृष्टान्त जैसे आटा, घी, चीनी के समान होने पर भी कोई लड्डु वायु, कोई पित या कोई कफ का नाश करे, वैसे ही आत्मा द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म-पुद्गलों में से कुछ कर्म-पुद्गलों में ज्ञान को आच्छादित करने की, कुछ में दर्शनगुण को आवृत्त करने की शक्ति, मोहनीय सुख, आत्मसुख, परमसुख, शाश्वतसुख के लिए घातक है। अन्तराय से वीर्य (शक्ति) का घात होता है, वेदनीय सुख-दुःख का कारण है। आयु से आत्मा को नरकादि विविध भावों की प्राप्ति होती है। नाम के कारण जीव को विविध गति, जाति, शरीर आदि प्राप्त होते हैं और गोत्र प्राणियों के उच्चत्व-नीचत्व का कारण है। इसे प्रकृति कहते हैं। इस प्रकार गृहीत कर्म-पुद्गलों में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रवृत्तियों, स्वभावों के बन्ध और स्वभावों के उत्पन्न होने को प्रवृत्ति-बन्ध कहते हैं। जैसे उक्त औषधि मिश्रित लड्डुओं में से कुछ की एक सप्ताह, कुछ की एक पक्ष, कुछ की एक माह तक अपने स्वभाव में बने रहने की काल मर्यादा होती है। इस मर्यादा को स्थिति कहते हैं। वैसे कोई कर्म 20/30/70 कोडाकोडि सागरोपम काल तक रहे-इसे स्थितिबंध कहते हैं और उस स्थिति के बाद बद्ध कर्म अपने स्वभाव का भी त्याग कर देते हैं। स्निग्ध, रुक्ष, मधुर-कटुकादि इसमें से किसी मोदक में एक गुण हो, कोई द्विगुण, कोई त्रिगुण हो, वैसे किसी कर्म में एकस्थानीय, किसी में द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय या चतुस्थानीय रस होता है, इसे अनुभाग/रस-बन्ध कहते हैं। ... जैसे कोई लड्डु 100 ग्राम, कोई 500 ग्राम, कोई 1 किलो का होता है, वैसे ही किसी कर्म के दलिक कम, किसी कर्म के ज्यादा होते हैं। इसे प्रदेशबंध कहते हैं। इस तरह भिन्न-भिन्न परमाणु संख्यायुक्त कर्मदलिकों का आत्मा के साथ बंधना प्रदेशबंध है। कर्मबंध की पद्धति मकान बांधते समय सीमेण्ट रेती में पानी डालकर जो मिश्रण किया जाता है, उसमें भी मिश्रण की प्रक्रिया पदार्थों पर आधारित है। पानी यदि बिलकुल कम होगा तो मिश्रण बराबर नहीं होगा। उसी प्रकार आत्मा के साथ कर्मबंध में भी कषायादि की मात्रा आधारभूत प्रमाण है। सीमेंट रेती में मिश्रण पानी के आधार पर होता है, वैसे ही आत्मा के साथ जड़ कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का मिश्रण कषाय के आधार पर होता है। जिस प्रकार पानी कम-ज्यादा हो तो मिश्रण में फर्क पड़ता है, उसी तरह कषायों में तीव्रता या मंदता आदि के कारण कर्म के बंध में भी शैथिल्य या दृढ़ता आती है। अतः कर्मबंध की पद्धति के चार प्रकार हैं-1. स्पृष्ट, 2. बद्ध, 3. निधत, 4. निकाचित। 1. स्पृष्ट बन्ध-सूचि समूह के परस्पर बन्ध के समान गुरु कर्मों का जीव-प्रदेश के साथ बन्धन होता है, वह स्पृष्ट बन्ध है। अल्प कषाय आदि के कारण से बंधे कर्म जो आत्मा के साथ स्पर्शमात्र सम्बन्ध से चिपक कर रहे हैं, उन्हें सामान्य पश्चात्ताप मात्र से ही दूर किये जा सकते हैं। धागे में हल्की-सी गांठ जो शिथिल ही लगाई गई है, वह आसानी से खुल जाती है, वैसा कर्मबंध स्पर्श मात्र कहलाता है। जैसे प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को ध्यान में विचारधारा बिगड़ने से जो कर्मबंध हुआ, वह शिथिल स्पर्श मात्र ही था। अतः 2 घड़ी में तो कर्मक्षय भी हो गया। 333 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org