Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ मिथ्यात्व आदि हेतुओं द्वारा कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का आत्मा के साथ क्षीर नीरवत् या तप्त अथ पिण्ड लोहाग्निवत् एक साथ होना ही बन्ध है। मिथ्यात्व आदि पांच हेतुओं, प्रज्ञापना, धर्मसंग्रहणी तथा स्थानांगसूत्र में भी बताये गए हैं तथा कम्मपयडी आदि कर्म विषयक ग्रंथों में प्रमाद को असंयम या कषाय में अन्तर्भाव करके चार हेतु कहे हैं। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-इन चार हेतुओं पर सूक्ष्मता और मूलदृष्टि से देखा जाए तो मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद-ये कषाय के अंग हैं। ये कषाय के स्वरूप से अलग नहीं पड़ते, जिससे कर्मशास्त्र में कषाय और योग-इन दोनों को कर्मबन्ध का हेतु मानकर भी कर्मत्व का विवेचन दिया है। इस सम्बन्ध में कर्मशास्त्रियों का मन्तव्य यह है कि जीव क्रिया से आकृष्ट होकर उसके साथ संश्लिष्ट होने वाले कर्म-परमाणुओं को कर्म कहते हैं। संसारी जीवों के क्रिया के आधार हैं-मन, वचन और काया। इनकी क्रिया व्यापार से आत्म-प्रदेशों में परिस्पंदन कम्पन्न होता है, जिसे योग कहते हैं। इस योग व्यापार से कर्म परमाणु आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं और आत्मा के राग, द्वेष, मोह आदि भावों का निमित्त पाकर आत्मा के साथ बन्ध जाते हैं। इस प्रकार कर्म परमाणुओं को आत्मा के समीप लाने का कार्य योग करता है और आत्मप्रदेशों के साथ बन्ध कराने का कार्य कषाय करते हैं। इसीलिए योग और कषाय-इन दोनों को कर्मग्रन्थों में बन्ध हेतुओं के रूप में स्वीकार किया गया है। दूसरा दृष्टिकोण कषाय और योग-इन दो को मुख्य मानने का कारण यह भी है कि कषायों के नष्ट हो जाने पर योग के रहने तक कर्म का आश्रव होगा तो अवश्य, किन्तु कषाय के अभाव में ये वहाँ ठहर नहीं सकेंगे। अतः वे अपना रूप नहीं दिखा सकते। उदाहरण के रूप में योग को वायु, कषाय को गोंद, आत्मा को दीवार और कर्म परमाणुओं को धूलि की उपमा दी जा सकती है। यदि दीवार पर गोंद आदि की स्निग्धता लगी हो तो वायु के साथ उड़कर आने वाली धूलि दीवार से चिपक जाती है और यदि दीवार साफ-सुथरी, सपाट हो तो वायु के साथ उड़कर आने वाली धूलि दीवार से न चिपक कर तुरन्त झड़ जाती है। ये मिथ्यात्व आदि योग पर्यन्त कर्म मात्र के समान बन्ध हेतु होने से सामान्य कारण कहलाते हैं। आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि स्वाभाविक भाव हैं तथा राग-द्वेष और मोह-ये वैभाविक भाव हैं। आत्मा जब वैभाविक भावों में जाती है तब कर्मबन्ध के बन्धनों से बंधती है, इस बात से सभी दार्शनिक सहमत हैं। औपनिषद् ऋषियों ने स्पष्ट कहा कि अनात्मा-देहादि में आत्मतत्त्व का अभिमान करना मिथ्याज्ञान है, मोह है और वही बन्ध है। - न्यायदर्शन में भी मिथ्याज्ञान को कर्मबन्ध का कारण माना है और मिथ्याज्ञान का दूसरा नाम मोह है तथा यही कर्मबन्ध का कारण है। वैशेषिक दर्शन और न्यायदर्शन समानतंत्रीय है। अतः न्यायदर्शन का समर्थन करते हुए उसने भी मिथ्याज्ञान को कर्मबन्ध का हेतु माना है। सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष के अभेदज्ञान, मिथ्याज्ञान को कर्मबन्ध का कारण माना है। योग में कर्मबन्ध का कारण क्लेश को बताया है और क्लेश का हेतु अविद्या माना है। इसी प्रकार वेदान्त दर्शन, भगवद् गीता में भी कर्मबन्ध का हेतु अविद्या कहा है। जैनदर्शन ने भी अन्य दर्शनकारों की तरह सामान्यतः मिथ्याज्ञान, मोह, अविद्या आदि को कर्मबन्ध का हेतु माना है, जैसे कि रागो य दोसोश्विय कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। 331 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org