Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ इस प्रकार कर्म केवल संसार मात्र ही नहीं है, किन्तु एक स्वतन्त्र वस्तुभूत पदार्थ भी है, जो जीव की रागद्वेषात्मक क्रिया से आकृष्ट होकर आत्मा के साथ लग जाता है। जैन दर्शन में कर्म को पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड माना गया है। तदनुसार यह लोक 23 प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं से व्याप्त है। उनमें से कुछ पुद्गल परमाणु कर्म रूप से परिणत होते हैं, उन्हें कर्म वर्गणा कहते हैं। कुछ शरीर रूप में परिणत होते हैं, वे नोकर्म-वर्गणा कहलाते हैं। लोक इन दोनों प्रकार के परमाणुओं से पूर्ण है। जीव मन, वचन और काय की प्रकृतियों से इन्हें ग्रहण करता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति तभी होती है, जब जीव के साथ कर्म संबंध हो तथा जीव के साथ कर्म तभी संबद्ध होते हैं, जब मन, वचन या काय की प्रवृत्ति हो। इस प्रकार कर्म से प्रवृत्ति तथा प्रकृति से कर्म की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। कर्म और प्रकृति से इस कार्य-कारण सम्बन्ध को दृष्टिगत रखते हुए पुद्गल परमाणुओं से पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म तथा रागद्वेषादिरूप प्रकृतियों को भावकर्म कहा गया है। द्रव्यकर्म और भावकर्म का कार्य-कारण सम्बन्ध वृक्ष और बीज के समान अनादि है। जगत् की विविधता का कारण उक्त द्रव्य कर्म ही है तथा राग-द्वेषादि मनोविकाररूप भाव कर्म ही जीवन / में विषमता उत्पन्न करते हैं। कबसे बंधा है कर्म जैसे स्वर्ण पाषाण को खदान से निकालने पर वह कालिमा और किट्टिमा से संयुक्त विकृतिरूप होता है। उसे रासायनिक प्रयोगों से पृथक् कर शुद्ध किया जाता है, उसी तरह संसारी जीवों का कर्मों से अनादि सम्बन्ध है। जैनदर्शन के अनुसार संसार में रहने वाला प्रत्येक जीव कर्मों से बंधा हुआ है। तपश्चर्या के बल पर कर्मों को अलग कर आत्मा से परमात्मा बना जा सकता है। जीव कभी शुद्ध या फिर अशुद्ध हुआ है, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि यदि वह शुद्ध था तो फिर उसके अशुद्ध होने का कोई कारण ही नहीं बनता। यदि एक बार शुद्ध होकर भी वह अशुद्ध होता है तब तो मुक्ति के उपाय ही बात निरर्थक हो जाती है। इसी बात का समाधान करते हुए जैनाचार्यों ने कहा है कि जीव और कर्म का अनादिकाल से , सम्बन्ध है। इन कर्मों के कारण ही संसार की नाना योनियों में भटकता हुआ यह जीव सदा से दुःखों का भार उठाता आ रहा है। कर्मबन्ध और संसार परिभ्रमण को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने पंचास्तिकाय ग्रंथ में कहा है कि जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होरि परिणामो। परिणामादो कम्मं कमादो होदि गदि सु गदि।। गदिमधिगदस्स देहो देहादो इदियाणी जायन्ते। तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो दु रागो व दोसो वा।। जायदि जीवस्सेवं भावं संसार चक्रवालम्मि। इदि जिणवरोहिं भणिद अणादि णिहणो सणिहणो वा।। संसार में जितने भी जीव हैं, उनमें राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं। उन परिणामों से कर्म बंधते हैं। कर्मों से चार जातियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेने से शरीर मिलता है तथा शरीर में इन्द्रियां होती हैं। इनसे विषयों का ग्रहण होता है तथा विषयों के ग्रहण से राग-द्वेष होते हैं। इस प्रकार संसार 326 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org