Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________ यदि यह माने कि घड़ा नया उत्पन्न नहीं होता तो फिर यह प्रश्न होगा कि वह घड़ा किस कारण में रहता है? यदि यह कहा जाये कि घड़ा मिट्टी में रहता है तो फिर यह प्रश्न होगा कि यदि घड़ा मिट्टी में ही है तो पानी और आग की क्या जरूरत है और कुम्हार का प्रयत्न भी व्यर्थ है। घड़े को मिट्टी में से स्वयं ही प्रकट हो जाना चाहिए। बिना कारण कुम्भकार को क्यों प्रयत्न करना पड़ता है? कारण में कार्य का अस्तित्व पहले से ही मानने पर कारण और कार्य एक ही हो जायेंगे। फिर भी ये दो क्यों माने जाते हैं? दोनों को दो नाम क्यों दिये जाते हैं? दोनों के लिए एक ही नाम का प्रयोग क्यों नहीं होता है? इससे सिद्ध होता है कि दोनों सर्वथा भिन्न हैं। नैयायिक का कहना है कि यह प्रत्यक्ष तथ्य है कि घड़े में हम पानी, घी, तेल आदि रख सकते हैं। वह इन्हें धारण करने में समर्थ है किन्तु मिट्टी में हम इन्हें नहीं रख सकते, वह इन्हें धारण नहीं कर सकता। घड़े का कार्य वह नहीं कर सकता। यदि मिट्टी में घड़ा होता तो ये सब कार्य मिट्टी से ही हो जाता, जो घड़े से होता है। किन्तु व्यवहार में देखते हैं कि ऐसा नहीं होता। अतः कार्य कारण में पहले से नहीं रहता, वह सर्वथा नवीन होता है। यदि कारण और कार्य एक ही है तो फिर उन दोनों में सम्बन्ध कैसे होगा? न्याय वैशेषिक का अनेकान्तवाद न्याय-वैशेषिक ने भी अपने सिद्धान्त प्रतिपादन में अनेकान्त दृष्टि का अवलम्बन लिया है। उनका मानना है कि इन्द्रिय सन्निकर्ष में धूमज्ञान होता है। धूमज्ञान से अग्नि की प्राप्ति होती है। यहाँ इन्द्रिय सन्निकर्ष प्रत्यक्ष प्रमाण है, धूमज्ञान उसका फल है और यही धूमज्ञान अग्निज्ञान अपेक्षा अनुमानप्रमाण है। फलस्वरूप एक ही धूमज्ञान इन्द्रिय सन्निकर्ष रूप प्रत्यक्षप्रमाण का फल एवं अनुमान प्रमाण दोनों है। एक ही ज्ञान फल भी है, प्रमाण भी है। यह कथन अनेकान्त का संवाहक है। न्याय वैशेषिक दर्शन ने दो प्रकार का सामान्य स्वीकार किया है-महासामान्य, अपरसामान्य। अपर सामान्य का ही अपर नाम सामान्य विशेष है। वह द्रव्य, गुण और कर्म में रहता है। द्रव्यत्व सामान्य विशेष है। द्रव्यत्व नाम का सामान्य ही द्रव्यों में रहता है इस अपेक्षा से सामान्य है तथा गुण और कर्म से अपनी व्यावृत्ति करवाता है अतः विशेष है। यह अपेक्षा अनेकान्त के बिना असंभव है। इस सन्दर्भ में उपाध्याय यशोविजय कहते हैं, “जो एक ही वस्तु चित्ररूप या अनेकरूप मानते हैं, वे न्याय-वैशेषिक भी अनेकान्तवाद का अनादर नहीं कर सकते।" जो स्वयं ही घट में व्याप्यवृत्ति की अपेक्षा एकचित्ररूप एवं अव्याप्यवृत्ति की अपेक्षा विलक्षण चित्ररूपों को मान्य करते हैं, उनके लिए अनेकान्त का अनादर करना उचित नहीं है। स्याद्वाद के उन्मूलन से उनके अपने मन्तव्य का ही उन्मूलन हो जायेगा। एकानेक रूपों का एक ही धर्मी में समावेश करना ही अनेकान्तवाद की स्वीकृति है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं-"वैशेषिक दर्शन में जैन दर्शन के समान ही प्रारम्भ ही प्रारम्भ में तीन पदार्थ की कल्पना की गई-द्रव्य, गुण और कर्म। जिन्हें हम जैन दर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय कह सकते हैं। अनुभूति के स्तर पर द्रव्य से पृथक् गुण तथा द्रव्य और गुण से पृथक् कर्म नहीं होते हैं। यही उनका भेदाभेद है, यही तो अनेकान्त है।" 267 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org