Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ आगमों में नय आगमयुग में नय पद्धति का विकसित रूप या प्रत्येक सूत्र के अर्थ की प्रतिपति गहन नयवाद पर आश्रित थी। आचारांग में अनेक सूत्र ऐसे हैं, जिनका हृदय नय के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है, अन्यथा मूढ़ता और भ्रांति पैदा हो सकती है। उदाहरण के लिए आचारांग के कुछ सूत्र द्रष्टव्य हैं जे लोयं अब्माइकखइ, से अत्ताणं अब्माइकखई। जे अत्ताणं अब्माइकखइ से लोयं अब्माइकखइ। (1/39) जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ। जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ। (1/147) ___ जे एगं नामे, से बहु नामे। जे बहु नामे, से एगं नामे। (3/74) जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ। जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ। (3/76)130 गत प्रत्यागशैली में संबद्ध इन सूत्रों का रहस्य विविध नयों के आलोक में ही उद्घाटित हो सकता है। इस सन्दर्भ में आचारांगभाष्य पठनीय है। आचारांग (2/177) में स्पष्ट निर्देश है कि परिषद् में कौन श्रोता किस नय का पक्षधर है-यह जानकर मुनि प्रवचन करे। इसका संवादी वचन है-आसज्ज उ सोयारं णए णयविसारओ बूया। वृत्तिकार शीलांगसूरि ने लिखा-एकनयद्रष्टयाऽवधारणात्मकप्रत्ययमनाचारम्। एकांतदृष्टि से किया जाने वाला चिन्तन और प्रतिपादन अनाचार है। एकान्तवाद का सेवन * * सैद्धान्तिक अनाचार है। स्याद्वाद और नयवाद का प्रयोग वाणी का आचार है। . ठाणं में नरक का नयदृष्टि से विचार किया गया है। प्रथम तीन नयों की अपेक्षा नरक पृथ्वीप्रतिष्ठित है। ऋजुसूत्र की अपेक्षा आकाशप्रतिष्ठित और शब्दनयों की अपेक्षा आत्मप्रतिष्ठित है। इस आधार पर सात नय तीन भागों में विभक्त होते हैं अशुद्ध नय-प्रथम तीन नय शुद्ध नय-ऋजुसूत्र नय शुद्धतर नय-तीन शब्द नय। भगवती में द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय प्रज्ञप्त है। यहाँ सात नयों का उल्लेख नहीं है। समवाओ और नंदी135 में दृष्टिवाद आगम का विवरण उपलब्ध है। वहाँ चार नय और तीन नय का भी उल्लेख है। चूर्णिकार ने चार नय ये बताये हैं-द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक और उभयार्थिक। दृष्टिवाद में विभिन्न दार्शनिकों की दृष्टियों का निरूपण है। सब नयदृष्टियों से वस्तुसत्य का विचार किया गया है। यह आगम वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। प्रज्ञापना अंगबाह्य आगम है। इसमें रचनाकार श्यामाचार्य ने इसे दृष्टिवाद का निष्टान्द (सार) कहा है अज्झयणमिण चितं, सुयरयणं दिद्विवायणीसंद। 58 288 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org