Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ अनंतधर्मात्मक वस्तु से नियत एक धर्म के अवलम्बन से वस्तु को प्रतीति का विषय बनाने के अर्थ में नय शब्द प्रयुक्त है। वस्तुत्व को अवबोध गोचर प्राप्त कराने वाले को नय कहते हैं। वस्तु के प्रतिपक्षी धर्मों का निराकरण न करते हुए ज्ञाता के अभिप्राय, जो कि वस्तु के एक अंश का ग्रहण करता है, को नय कहते हैं। नय के भेद श्रुतज्ञान स्वार्थ और पदार्थ-दोनों प्रकार का होता है। ज्ञानात्मक श्रुत स्वार्थ और वचनात्मक श्रुत पदार्थ है। आचार्य पूज्यपाद के अनुसार नय वचनात्मक श्रुत के भेद हैं। अतः जितने वचनपथ हैं, उतने ही नय हैं। वचनपथ अनन्त हो सकते हैं तो नय भी अनन्त हो सकते हैं। किन्तु उसके मौलिक वर्ग दो हैं। आचार्य सिद्धसेन के मतानुसार भेदपदक और अभेदपदक के अनुसार मूल नय दो हैं- . * द्रव्यार्थिक नय-द्रव्यप्रधान दृष्टि, * पर्यायार्थिक नय-पर्यायप्रधान दृष्टि। अभिधान राजेन्द्र कोश में अत्यन्त कम शब्दों में लेकिन स्पष्टतम स्वरूप के साथ नय के दो मुख्य भेद कहे गये हैं। निश्चयनय और व्यवहारनय लोक व्यवहारपरक अभ्युपगम को प्रधानता देने वाले नय को व्यवहारनय कहते हैं। जैसे-भ्रमर में काले रंग की अधिकता होने से व्यवहार में ऐसा कहा जाता है कि भौंरा काला है किन्तु स्थूल शरीर में पांच वर्गों के पुद्गलों का संघात होने से निश्चय नय के अनुसार उसी भ्रमर को पांच वर्ण वाला कहा जाता है अर्थात् व्यवहारनय लोकव्यवहारपरक और निश्चयनय परमार्थपरक है।' इसी बात की पुष्टि उपाध्याय यशोविजय ने जैन तर्कपरिभाषा में की है। अनुयोगद्वार में मूल सात नय बताये हैं। आवश्यकनियुक्ति के अनुसार प्रत्येक नय के सौ-सौ भेद हैं। इस प्रकार सात नयों के सात सौ भेद हो जाते हैं। आवश्यकवृत्तिकार हरिभद्रसूरि ने 'अवि' शब्द की व्याख्या में 600, 400 और 200 भेदों का संकेत भी किया है। जयधवला के अनुसार अग्रेयणीय पूर्व में सात सौ सुनय और दुर्नयों का प्रज्ञापना था। निष्कर्ष में रूप कहा जा सकता है कि सोचने और प्रतिपादन के जितने तरीके हैं, जितने वचनमार्ग हैं, उतने नय हैं। इस दृष्टि से नय संख्यात, असंख्यात और अनन्त हो सकते हैं। द्रव्यार्थिक नय द्रव्यार्थिक नय की व्याख्या करते हए आचार्य श्रीमदविजय राजेन्द्रसूरीश्वर ने अभिधान राजेन्द्रकोश में कहा है कि अतीत, अनागत, वर्तमानकाल में जो द्रवित होता है अर्थात् परम्परा से एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी-ऐसे क्रमबद्ध पर्यायों को ग्रहण करता रहता है, वह द्रव्य है। केवल द्रव्य की ही मुख्यता से जिस नय का अर्थ अर्थात् प्रयोजन है, वह द्रव्यार्थिक नय है। यह नय द्रव्य मात्र की प्ररूपणा 291 Jain Education International www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only