Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ है। दोनों दृष्टियाँ सम्यक् हैं। दोनों यथार्थता को ग्रहण करती हैं। महावीर और गौतम के बीच एक संवाद है। गौतम महावीर से पूछते हैं-भगवन्! पतले गुड़ में कितने वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं। महावीर उत्तर देते हैं-गौतम! इस प्रश्न का उत्तर दो नयों से दिया जा सकता है-व्यवहारिक नय की दृष्टि से वह मधुर है और नैश्चयिक नय की अपेक्षा से वह पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श वाला है। इसी प्रकार गन्ध, स्पर्श आदि से संबंधित अनेक विषयों को लेकर व्यवहार और निश्चयनय से उत्तर दिया है। इन दो दृष्टियों से उत्तर देने का कारण यह है कि वे व्यवहार को भी सत्य मानते थे। परमार्थ के आगे व्यवहार की उपेक्षा नहीं करना चाहते थे। व्यवहार और परमार्थ दोनों दृष्टियों को समान रूप से महत्त्व देते थे। अर्थनय और शब्दनय आगमों में सात नयों का उल्लेख है। अनुयोगद्वार सूत्र में शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत को शब्दनय कहा गया है।78 बाद के दार्शनिकों ने सात नयों के स्पष्ट रूप से दो विभाग कर दिए-अर्थनय और शब्दनय। आगम में जब तीन नयों को शब्दनय कहा गया तो शेष चार नयों को अर्थनय कहना युक्तिसंगत ही है। जो नय अर्थ को अपना विषय बनाते हैं, वे अर्थनय हैं। प्रारम्भ के चार नय-नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र अर्थ को विषय बनाते हैं अतः वे अर्थनय हैं। अन्तिम तीन नय शब्द समभिरूढ़ एवं एवंभूत शब्द को विषय करते हैं अतः वे शब्दनय हैं। अर्थनय और शब्दनय की यह सूझ नई नहीं है। आगमों में इसका उल्लेख है। F ज्ञाननय क्रियानय जिस कार्य से ज्ञान को प्रधानरूपी कारण मानें, उन्हें ज्ञान नय कहते हैं। 'पढमं नाणं तओ दया, जं अन्नाणी कम्म' आदि शास्त्रवचन ज्ञान को ही प्रधान मानते हैं। ज्ञान बिना की क्रिया का कोई अर्थ नहीं है। ज्ञाननय को बताते हुए उपाध्याय यशोविजय ने जैन तर्क परिभाषा में दिखाया है किज्ञानमात्रप्राधान्याभ्युपगमपरा ज्ञाननयाः।? क्रियानय अकेला ज्ञान कुछ काम नहीं करता है, क्रिया जरूरी है, क्योंकि रसोई करने का ज्ञान है पर क्रिया नहीं है तो क्षुधा शांत नहीं होती है। इसलिए कह सकते हैं कि ज्ञान के साथ क्रिया का भी उतना ही महत्त्व है। क्रियानय को परिभाषित करते हुए उपाध्याय यशोविजय ने जैन तर्कपरिभाषा में दिखाया है कि-क्रियामात्रप्राधान्याभ्युपगमपराश्च क्रियानयाः।180 - उपसंहार नय सिद्धान्त की समुचित अवगति एवं व्यवस्था के द्वारा तत्त्वमीमांसीय, आचारशास्त्रीय, सामाजिक, राजनैतिक आदि सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान प्राप्त किया जा सकता है। विवाद वहाँ उपस्थित होता है, जब यह कहा जाए-I am right, you are wrong. किन्तु जब परस्पर एक-दूसरे की अपेक्षा दृष्टि को समझ लिया जाता है तब विरोध या विवाद स्वतः समाहित हो जाता है। अतः नयवाद का उपयोग मात्र सैद्धान्तिक क्षेत्र में ही नहीं है किन्तु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसकी अत्यन्त उपयोगिता है। 293 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org