________________ संग्रहनय के दो भेद हैं1. पर-सामान्य-यह भेद रहित अन्तिम सामान्य को ग्रहण करता है, जैसे द्रव्य मात्र सत् है। 2. अपर-सामान्य-सत्ता रूप महासामान्य की अपेक्षा लघु जैसे द्रव्यत्व आदि सामान्य को अपर सामान्य कहते हैं।199 द्रव्यानुयोगवर्गणा में इन्हें सामान्यनंगह और विशेषसंग्रह के नाम से कहा गया है।200 3. व्यवहार नय व्यवहार नय का आधार है-वस्तु में निहित विशेष धर्म। यह नय भेदपरक दृष्टि है। संग्रहनय जहाँ जीव द्रव्य आदि का संग्रहण करता है, वहाँ व्यवहारनय जीव में सिद्ध और संसारी, व्यवहारराशि और अव्यवहारराशि, जंगम और स्थावर आदि भेद करता है। इस प्रखर संग्रहनय द्वारा गृहीत पदार्थों का विधिपूर्वक अपहरण करने वाला नय व्यवहारनय है। जिस अर्थ का संग्रहनय ग्रहण करता है, उस अर्थ का विशेष रूप से बोध कराना हो, तब उसका पृथक्करण करना पड़ता है। संग्रह तो सामान्य मात्र का ग्रहण कर लेता है. किन्त वह सामान्य किस प्रकार का है, इसका विश्लेषण करने के लिए व्यवहार का आश्रय लेना पड़ता है। आचार्य तुलसी के अनुसार 'भेदग्राही व्यवहारः'202 भेद (विशेष) को ग्रहण करनेवाला अभिप्राय व्यवहारनय है। संग्रहनय के द्वारा गृहीत अर्थों का निषेध नहीं करते हुए विधान करके जो विशेष परामर्श करते हुए उसी को माने, स्वीकार करे, वह व्यवहारनय है। जैसे जो सत् है, वह द्रव्य है या पर्याय? द्रव्य के छः भेद-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि ऐसा विमर्श करना। उपाध्याय यशोविजय ने भी नयरहस्य में व्यवहारनय की व्याख्या करते हुए कहा है कि जो अध्यवसाय विशेष लोगों के व्यवहार में उपायभूत है, वह व्यवहारनय कहलाता है।206 उपाध्यायजी ने जैन तर्क परिभाषा में भी व्यवहारनय की व्याख्या करते हुए लिखा हैसङ्ग्रहणे गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः / 206 अर्थात् संग्रहनय द्वारा गृहीत अर्थों का विधिपूर्वक अवहरण विशेष रूप से हो, उसे व्यवहारनय कहते हैं। नयवाद में व्यवहारनय का लक्षण बताते हुए कहा है कि-विशेषण, अवहरति, प्ररुपयति, पदार्थान इति व्यवहारः / विशेष रूप से जो पदार्थों का निरूपण किया जाता है, उसे व्यवहारनय कहते हैं। न्यायप्रदीप में व्यवहारनय की व्याख्या करते हुए कहा है कि-भेदरुपतया व्यवह्रियते इति व्यवहारः। संग्रहनय से ग्रहण किये गये पदार्थ का योग्य रीति से विभाग करने वाला व्यवहारनय है। संग्रह और व्यवहार-ये दोनों दृष्टियां समान्तर रेखा पर चलने वाली हैं पर इनका गतिक्रम विपरीत है। संग्रहदृष्टि सिमटती चली जाती है और चलते-चलते एक हो जाती है। व्यवहारदृष्टि खुलती चली जाती है और चलते-चलते अनन्त हो जाती है। जैनदर्शन : मनन और मीमांसा में जीव के उदाहरण के द्वारा बहुत ही सुन्दर एवं सरल ढंग से समझाया गया है कि किस प्रकार संग्रहनय भेद से अभेद की ओर गमन करता है और व्यवहारनय अभेद से भेद की ओर गमन करता है। 200 वस्तुतः जहाँ अस्तित्व का ज्ञान हो, वहाँ तो अभेद से काम चल सकता है किन्तु संसार के व्यवहार मात्र अस्तित्व से नहीं चलते। वहाँ उपयोगिता की चर्चा करनी होती है। उपयोगिता के लिए भेद का अवलम्बन अनिवार्य है। सत् करने मात्र से जीव अथवा अजीव का निर्णय नहीं होता और उसके बिना 297 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org