Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ गौतम ने पूछा-नैश्चयिक शाश्वत है या अशाश्वत? महावीर ने कहा गोयमा! अव्वोच्छितिनयट्ठयाए सासया, योच्छितिनयट्ठाए असासया।। गौतम! अव्युच्छितिनय से नैश्चयिक शाश्वत है और व्युत्पत्तिनय से अशाश्वत। भंते! भंवरे में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श कितने होते हैं? भगवान ने कहा गोयमा! एत्य णं दो नया भवंति, तं जहा नेच्छइयनए य, वावहारियनाए य। वावहारियनयस्स कालए भमरे, नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे जाण अट्टफासे पण्णते।। गौतम! इसकी वक्तव्यता दो नयों से होती है-1. नैश्चयिक नय, 2. व्यावहारिक नय। व्यवहारनय की अपेक्षा से भ्रमर काला है। नैश्चयिक नय की अपेक्षा से वह पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श वाला है। भंते! रत्नप्रभा पृथ्वी आत्मा है या अन्य है? गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है, स्यात् आत्मा नहीं है, स्यात् अवक्तव्य है, यह कैसे? वह रूप की अपेक्षा से आत्मा है, पर की अपेक्षा से आत्मा नहीं, तदुभय की अपेक्षा से अवक्तव्य है। 26 स्कन्धक ने पूछा-भंते! लोक सांत है या अनन्त? भगवान ने कहा-द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से सांत है, काल और भाव की दृष्टि से लोक अनन्त है। सोमिल ने पूछा-भंते! आप एक हैं या अनेक? सोमिल-मैं द्रव्य की अपेक्षा से एक हूँ, ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से दो हूँ। प्रदेश की अपेक्षा से अक्षय, अव्यय और अवस्थित हूँ। उपयोग की अपेक्षा से मैं अनेक हूँ।128 भगवती के उल्लिखित उदाहरणों के आधार पर स्पष्ट है कि भगवान महावीर की उत्तर देने की शैली सापेक्षता पर आधारित है। वहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इस दृष्टि से चतुष्ट्यी का प्रयोग भी बहुलता से हुआ है। निश्चयनय, व्यवहारनय, अव्युच्छितिनय-व्युच्छितिनय, द्रव्यार्थिकनय-पर्यायार्थिकनय-नय की इस युगलत्रयी के माध्यम से महावीर ने तत्त्वों का विशद्ता से प्रज्ञापन किया। इसीलिए आचार्य सिद्धसेन ने कहा तीर्थंकर के वचन सामान्य विशेषात्मक होते हैं। इसके प्रतिनिधि नय दो हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। द्रव्यार्थिक नय सामान्य (अभेद) और पर्यायार्थिक नय विशेष (भेद) का प्रतिपादन है। शेष नय इन्हीं की शाखा-प्रशाखाएँ हैं। कोई भी द्रव्य, उत्पाद, व्यय रूप पर्याय से रहित नहीं है और कोई पर्याय द्रव्य से रहित नहीं है-इस वस्तस्वरूप के आधार पर दो नय हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वेदान्त ने अभेद को और दों ने भेद को सत्य माना। महावीर की अन्तर्दृष्टि ने इन दोनों में विद्यमान सत्यांश को देखा और घोषणा की कि प्रत्येक वस्तु अस्ति-नास्ति, सामान्य-विशेष, नित्य-अनित्य, आदि-अनन्त विरोधी धर्मयुगलों का समूह है। यही अनेकान्त है। स्वतंत्र रूप से भेद और अभेद दोनों सत्य नहीं, सापेक्ष रूप से दोनों सत्य हैं-यही नयवाद की पृष्ठभूमि है। 287 For Personal & Private Use Only Jain Education Interational www.jainelibrary.org