Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ वास्तव में अनेकान्तवाद सत्य-पथ प्रदर्शक है, जगत् का गुरु है। विभिन्न विचारों को सुलझानेवाला, सत्य निर्णय देने वाला अनेकान्तवाद जगत् का न्यायाधीश है। नयवाद शब्द पर आधारित ज्ञान की एक सीमा है। सीमा यह है कि प्रत्येक शब्द एक अर्थ की ओर ही संकेत करता है। दूसरी ओर वक्ता भी एक अभिप्राय लेकर ही कोई बात कहता है। पूरा सत्य एक साथ कहने का सामर्थ्य सर्वज्ञ पुरुषों में भी नहीं होता है। पूर्ण सत्य को कहने के लिए उसे खण्ड-खण्ड में बांटा जाता है। एक-एक पक्ष को उजागर किया जाता है। खण्ड सत्यों को मिलाकर सम्पूर्ण सत्य को जाना जाता है। इसी अभिप्राय से ही नयवाद को अनेकान्तवाद का आधार कहा जाता है। खण्ड सत्य अथवा अभिप्राय विशेष से कहा गया कथन ही नय कहलाता है। नय से जुड़ा हुआ सिद्धान्त नयवाद कहलाता है। 'णत्थि णएहिं विहूणं, सुतं अत्यो व जिणमए किंचि।' जिनमत में सूत्र हो या अर्थ, नय से विहीन कुछ भी नहीं है। आचार्य भद्रबाहु की इस उद्घोषणा में नय के उद्भवबीज निहित हैं। जब से अर्हत्वाणी और नय साथ-साथ चलते हैं, इन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता। वर्तमान कालखण्ड में भगवान महावीर की वाणी नय का उद्भवक्षेत्र है। आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार सामाजिक अध्ययन के मूलस्रोत भगवान महावीर हैं। वैशाख शुक्ला एकादशी, पूर्वाह्न काल में सामायिक का निर्गमन महावीर से हुआ। महासेन वन नामक उद्यान में सामायिक की उत्पत्ति हुई। नय का निर्गम, क्षेत्र और काल भी यही माना जा सकता है। ___वस्तु के किसी एक धर्म को जानने वाले विषय, करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। जब हम किसी मनुष्य को देखते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि यह मनुष्य है, उस समय हमें उसके किसी एक धर्म से मतलब नहीं रहता, यह प्रमाण है। किन्तु जब हम उसमें अंश कल्पना करने लगते हैं, जैसे यह इसका पिता है, उसका पुत्र है आदि तब वह ज्ञान नय कहलाता है। मतलब यह है कि प्रमाण वस्तु के पूर्णस्वरूप को ग्रहण करता है और नय उसके अंशों को। प्रमाण तो सब इन्द्रियों से हो सकता है लेकिन नय मन के द्वारा ही होता है। जब तक हम वस्तु को जानने के लिए नय का उपयोग न करेंगे, तब तक हमें वस्तु का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होगा। भगवान महावीर और नयवाद - श्रमण भगवान महावीर ने सत्य की शोध के लिए सापेक्ष दृष्टि का निर्धारण किया। सापेक्षता का मूल आधार नयवाद है। जैसे शास्त्र रचना का आधार मातृकापद है, तत्त्व का आधार त्रिपदी है, वैसे ही अनेकान्त का आधार नयवाद है। अनेकान्त के उद्गाता महावीर का प्रत्येक समाधान नयस्फुलिंगों से ज्योतिर्मय है। उदाहरणार्थ भगवती के कुछ प्रसंग पठनीय हैंगौतम ने पूछा-भंते! जीव शाश्वत है या अशाश्वत? महावीर ने कहा गोयमा! जीवा सिय सासया, सिय असासया। दव्वट्ठयाए सासया, भावट्ठयाए असासया।। गौतम! जीव स्यात् शाश्वत है और स्यात् अशाश्वत है। द्रव्यार्थिक से जीव शाश्वत है, भावार्थिक से अशाश्वत है। 286 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org