Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ भारतीय दर्शन वस्तुवाद प्रत्ययवाद जैन पूर्व मीमांसक सांख्ययोग बौद्ध शब्दाद्वैत ब्रह्माद्वैत (शांकर वेदान्त) वेदान्त चार्वाक बौद्ध विज्ञानाद्वैत शून्याद्वैत मध्व निम्बार्क रामानुज सौत्रान्तिक वैभाषिक प्रत्ययवादी 1. ब्रह्माद्वैत-ब्रह्माद्वैत के अनुसार सम्पूर्ण विश्व ब्रह्ममय है।" यहाँ नानात्व नहीं है। ब्रह्म की ही वास्तविक सत्ता है। जगत् की सत्ता व्यावहारिक है। ब्रह्म-सत्यं जगनमिथ्या। स्वप्न, मृगमरीचिकाये प्रातिभासिक सत् हैं। पारमार्थिक, व्यावहारिक एवं प्रातिभासिक के भेद से सत् वेदान्त में त्रिधा विभक्त हो जाता है। नित्यता ही सत्य है। परिवर्तन काल्पनिक मिथ्या है। 2. विज्ञानाद्वैतवाद (बौद्ध)-विज्ञानाद्वैतवाद के अनुसार दृश्य जगत् की वास्तविक सत्ता नहीं है।. . . सम्पूर्ण विश्व विज्ञानमय है। विज्ञान ही बाह्य पदार्थ के आकार में अवभासित हो रहा है। वास्तव में . विज्ञान एकरूप ही है। बुद्धि का न तो कोई ग्राह्य है और न कोई ग्राहक है। ग्राह्य-ग्राहक भाव से रहित बुद्धि स्वयं ही प्रकाशित होती है। ___3. शून्याद्वैतवाद-इसका अपर नाम माध्यमिक भी है। इस दर्शन की अवधारणा के अनुसार शून्य ही परमार्थ सत् है। यहाँ शून्य का अर्थ अभाव नहीं है किन्तु शून्य का अर्थ है-तत्त्व की अवाच्यता। शून्य सत्, असत्, उभय एवं अनुभय रूप नहीं है। वह चतुष्कोटि विनिर्मुक्त है।" बौद्धदर्शन में भी संवृत्ति सत् एवं परमार्थ सत् के भेद से सत् को द्विधा विभक्त स्वीकार किया है। भगवान बुद्ध ने इन दो सत्यों का आश्रय लेकर ही धर्म की देशना प्रदान की थी। बौद्ध दर्शन में परिकल्पित, परतन्त्र एवं परि-निष्पन्न के रूप में सत् तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है। इन तीनों में परिनिष्पन्न ही पारमार्थिक, वास्तविक सत् है। अवशिष्ट दो सत् तो मात्र व्यवहार के संचालन के लिए स्वीकृत हैं। माध्यमिक संवृत्ति सत् एवं परमार्थ सत् को स्वीकार करते हैं। योगाचार विज्ञानवादी सत् को परिकल्पित, परतन्त्र एवं परिनिष्पन्न कहते हैं। बौद्ध दर्शन की दो विचारधाराएँ-विज्ञानवाद एवं शून्याद्वैतवाद प्रत्ययवादी है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ये दार्शनिक स्थूल जगत् की सत्ता को संवृत्ति, परिकल्पित या परतन्त्र कहकर वास्तविक की कोटि में उसे परिगणित नहीं करते हैं अपितु इस जगत् से भिन्न शून्य अथवा विज्ञान ही इतने विचार में पारमार्थिक सत् हैं। यही प्रत्ययवादी की अवधारणा का मूल आधार है। सम्पूर्ण प्रत्ययवादी विचार गरा में भले ही वह वेदान्त आधारित है अथवा बौद्धदर्शन सम्मत, उसमें तत्त्व का अद्वैत है। तत्त्व का अद्वैत ही प्रत्ययवाद का आधार है। 271 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org