________________ कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्रसूरि महाराज के रचित सिद्धहेम व्याकरणग्रंथ में सिद्धि स्याद्वादात् इस सूत्र की वृत्ति में दिखाया है कि एकस्यैय हि ह्रस्व दीर्घादिविधियोऽने-क कारक संनिपातः सामानाधिकरण्यम्, विशेषण विशेष्यभावादयश्च स्याद्वादमन्तरेण नोपपद्यन्ते।।1० __अर्थात् एक ही में इस्व, दीर्घ आदि कार्यों, अनेक कारक का संबंध, समानाधिकरण्य, विशेषण, विशेष्यभाव आदि होता है। उनका श्रेय अनेकान्तवाद को ही है। और अधिक श्री हेमचन्द्रसूरिजी महाराज इसी सूत्र की वृत्ति में स्वरचित अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका के 30वें श्लोक का प्रमाण दिया है अन्योन्य पक्ष प्रतिपक्षभावाद, यथा पदे मत्सरणिः प्रपादाः। नयान शेषान विशेषमिच्छन न पक्षपाती समयस्तया ते।।। इससे भी आगे हेमचन्द्र सूरि ने अयोगव्यवच्छेदक द्वात्रिंशिका के 28वें श्लोक में यहाँ तक किया है कि इमां समक्ष प्रतिपक्षसाक्षिणा मुदारघोषामवधोषणा ब्रुवे। न वीतरागात् परमस्ति दैवत न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थितिः।।" सभी वादी के सामने हमारी उद्घोषणा है कि वीतराग के सिवाय कोई श्रेष्ठ देव नहीं है और . अनेकान्त के सिवाय अन्य कोई श्रेष्ठ नयस्थिति नहीं है। सुप्रसिद्ध श्री समन्तभद्राचार्य ने स्वरचित बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रावली के विमलनाथ स्तोत्र के 15वें श्लोक में दिखाते हैं नयास्तव स्यात्पदलाग्छना इमे रसोपविधा इव लोहधातवः। भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्या प्रणता हितैषिण।।। न्यायाचार्य, न्यायविशारद महोपाध्याय यशोविजय ने न्यायखंडकाव्य के 42वें श्लोक की व्याख्या में दिखाया है-“एक ही वस्तु में विविध विरुद्ध वस्तु के प्रतिपादन करने वाला स्याद्वाद नहीं है बल्कि अपेक्षाभेद से उनमें अविरोध को दिखाने वाला स्थान पद से समलंकृत वाक्यविशेष अनेकान्तवाद है। उपाध्याय यशोविजय ने ही स्वरचित अनेकान्त व्यवस्था प्रकरण की प्रशस्ति के 13वें श्लोक में दिखाया है कि इमं ग्रन्थं कृत्वा विषयविषविक्षेपकलुषं फलं नान्यद याचे किमपि भवभूतिप्रभृतिकम्।। इहाऽमूत्रापि स्तान्मम मतिरनेकान्तविषये धुवेत्येतद याचे तदिदमनुयाचध्वमपरे।। अर्थात् इस ग्रंथ की रचना करके विषरूपी विष के विक्षेप से कलुषित ऐसे संसार के वैभव आदि को मैं नहीं मांगता हूँ। मात्र अनेकान्त में इस भव में, परभव में मेरी मति निश्चल रहे, इतनी ही याचना करता हूँ। और अन्य लोग भी ऐसी याचना करें, ऐसी अलिभाषा रखता हूँ।15 सिद्धसेन दिवाकर सूरि महाराज विरचित द्वात्रिंशिक-द्वात्रिंशिका ग्रंथ की चतुर्थ द्वात्रिंशिका के 15वें श्लोक में दिखाते हैं-जैसे सभी नदियां महासागर में मिल जाती हैं पर सभी नदियों में महासागर नहीं दिखता है, वैसे ही सर्वदर्शनरूपी नदियां अनेकान्तवाद रूपी महासागर में मिल जाती हैं पर एकान्तवाद से भिन्न-भिन्न दर्शन रूपी नदियों में आपका स्याद्वाद रूपी महासागर नहीं दिख रहा है। 283 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org