Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ अस्तिरूप एवं परद्रव्यक्षेत्र आदि की अपेक्षा नास्तिरूप है। यदि ऐसा स्वीकार न किया जाये तो वस्तु की व्यवस्था ही नहीं हो सकती। वस्तु स्वरूपशून्य नहीं है इसलिए विधि की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है और वह सर्वात्मक नहीं है इसलिए निषेध की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है। स्वद्रव्य की अपेक्षा घट का अस्तित्व है, यह विधि है। परद्रव्य की अपेक्षा घट का नास्तित्व है, यह निषेध है। इसका अर्थ ऐसा अभिव्यंजित होता है कि दूसरे के निमित्त से होने वाला पर्याय है किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है। निषेध की शक्ति द्रव्य में निहित है। द्रव्य यदि अस्तित्व धर्मा हो और नास्तित्व धर्मा न हो तो वह अपने द्रव्यत्व को बनाए नहीं रख सकता। निषेध पर की अपेक्षा से व्यवहृत होता है, इसलिए उसे आपेक्षिक या पर-निर्मितक पर्याय कहते हैं। घट सापेक्ष है अतः उसका अस्तित्व एवं नास्तित्व युगपत् है। इसी बात की पुष्टि करते हुए उपाध्याय यशोविजय ने न्यायालोक में बताया है। विरोधी का समाहार / अस्तित्व-नास्तित्व विरोधी होते हुए भी एक ही वस्तु में अविनाभाव से युगपत् रहते हैं। एकानत. अस्तित्ववादी एवं एकान्त नास्तित्ववादी दर्शनों का मन्तव्य है कि दोनों एक साथ नहीं रह सकते। पदार्थ के अनुभव के द्वारा दोनों की एक साथ प्रतीति होने पर भी ये एक को मिथ्या कहकर अस्वीकार करते हैं। वेदान्त अस्तित्व को एवं बौद्ध नास्तित्व को यथार्थ स्वीकार करते हैं। अनेकान्त सिद्धान्त को जैनेतर ग्रंथों में विरोधी धर्मों के सहावस्थान के कारण ही समीक्षा हुई है। अनेकान्त की समीक्षा बादरायणकृत ब्रह्मसूत्र में नैकस्मिन्न-सम्भवात्% कहकर की गई है। अर्थात् एक ही वस्तु में विरोधी धर्मों का सहावस्थान सम्भव नहीं है अतः अनेकान्त सिद्धान्त दोषमुक्त नहीं है। ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार ने भी एक ही धर्मों में युगपत् विरोधी धर्मों के अवस्थान को असम्भव बताया है।" बौद्ध विद्वान् कमलशील ने भी इसी तर्क के आधार पर एकत्र विरोधी धर्मों के अवस्थान को अस्वीकार किया है। और इसी कारण उनको अनेकान्त सिद्धान्त संगत प्रतीत नहीं हो रहा है। ये दोनों ही सिद्धान्त व Priori Logic के समर्थक हैं। जैन तार्किकों का मन्तव्य है कि वस्तु स्वरूप का निर्णय अनुभव निरपेक्ष तर्क से नहीं हो सकता। उसका निर्णय अनुभव के द्वारा ही हो सकता है। अनुभव में वस्तु का स्वरूप उभयात्मक प्रतिभासित होता है। हमें तर्क के आधार पर वस्तु के स्वरूप का अपलाप नहीं करना चाहिए किन्तु अनुभव से प्राप्त तथ्यों को तर्क के द्वारा व्यवस्थित करना ही औचित्यपूर्ण है। जैन तार्किकों का यह मन्तव्य है कि वस्तु का अभेदमात्र अथवा भेदमात्र मानने वालों को भी अनुभव को तो अवश्य स्वीकार करना चाहिए, क्योकि वस्तु की व्यवस्था प्रतीति के द्वारा ही होती है। नील, पीत आदि पदार्थों की व्यवस्था संवेदन के द्वारा ही होती है अतः विरोध में भी संवेदन ही प्रमाण है।10 अर्थात् अनुभव के द्वारा अस्ति-नास्ति विरोधी धर्म एक ही वस्तु में रहते हैं। यह यथार्थ है। घट, मुकुट एवं स्वर्ण में भेद को अवभासित करने वाला ज्ञान स्पष्ट रूप से हो रहा है। वस्तु की व्यवस्था संवेदनाधीन है। इसमें विरोध की गंध का भी अवकाश नहीं है। मीमांसा दर्शन ने भी वस्तु व्यवस्था में अनुभव को ही प्रमाण माना है। शांकरभाष्य में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जब तर्क एवं पदार्थ के अनुभव में से किसी एक का त्याग करना हो तो तर्क का 277 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org