Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ विविध आकार वाली बुद्धि का निरूपण करने वाले बौद्ध, उसी प्रकार अनेक प्रकार के चित्रवर्ण वाला चित्ररूप को स्वीकार करने वाले नैयायिक तथा वैशेषिक आपके मत की निंदा कर सकते हैं। अर्थात् उनको अपना मत मान्य रखना है तो वे अनेकान्त का अपलाप कर सकते हैं। __यद्यपि सभी दर्शनों में अनेकान्त की दृष्टि विद्यमान है, क्योंकि उसके बिना वस्तु की समीचीन व्यवस्था नहीं बन सकती। अनेकान्त सहिष्णुता का दर्शन है। जीवन में अनेक विरोधी प्रश्न आते हैं। उनका समाधान अनेकान्त में खोजा जा सकता है। हम अनेकान्त दृष्टि के द्वारा विरोधी धर्मों को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं तो उसका समाधान उपलब्ध हो जाता है एवं सत्य के द्वार स्वतः उद्घाटित हो जाते हैं। मनुष्य अनेकान्त को समझे और इसके अनुरूप आचरण करे तो युगीन समस्याओं का समाधान पा सकता है। जैन दर्शन ने इस सिद्धान्त का व्यापक रूप से अपने ग्रंथों में प्रयोग किया है। अतः हम कह सकते हैं कि जैन दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन के नाम से प्रख्यात है या जैन दर्शन का आधार अनेकान्तवाद है। यह यथार्थ है। अनेकान्तवाद का स्वरूप यह जगत् जैसा दृष्टिगोचर हो रहा है, वैसा ही है अथवा तद्भिन्न है? इस प्रश्न के समाधान में विभिन्न दार्शनिक धाराओं का उद्भव हुआ। उन धाराओं को हम मुख्यतः दो भागों में विभाजित कर सकते हैं-प्रत्ययवाद एवं वस्तुवाद / ये दोनों शब्द आधुनिक दर्शनशास्त्र में प्रयुक्त होते हैं। प्राचीन भारतीय दर्शन साहित्य में सदृश अर्थव्यंजक शब्द ढूंढना चाहें तो वस्तुवाद के लिए बाह्यार्थवाद एवं प्रत्ययवाद के लिए ब्रह्माद्वैत, विज्ञानाद्वैत, शून्याद्वैत एवं शब्दाद्वैत का समन्वित प्रयोग कर सकते हैं। सम्पूर्ण * अद्वैतवादी अवधारणा का प्रतिनिधित्व करने वाला प्रत्ययवाद शब्द है, ऐसा कहा जा सकता है। वस्तुवाद ___ वस्तुवाद के अनुसार सत् को बाह्य, आभ्यन्तर, पारमार्थिक, व्यावहारिक, परिकल्पित, परिनिष्पन्न आदि भेदों में विभक्त नहीं किया जा सकता। सत्य सत्य ही है, उसमें विभाग नहीं होता। प्रमाण में अवभासित होने वाले सारे तत्त्व वास्तविक हैं तथा उन तत्त्वों को वाणी के द्वारा प्रकट भी किया जा सकता है। इन्द्रिय मन एवं अतीन्द्रियज्ञान इन सब साधनों से ज्ञात होने वाला प्रमेय वास्तविक है। इन साधनों से प्राप्त ज्ञान में स्पष्टता-अस्पष्टता में न्यूनाधिकता हो सकती है किन्तु इनमें से किसी एक प्रकार के ज्ञान द्वारा दूसरे प्रकार के ज्ञान का अपलाप नहीं किया जा सकता। प्रत्ययवाद प्रत्ययवादी अवधारणा के अनुसार जो दृश्य जगत् है, वह वास्तविक नहीं है। पारमार्थिक सत्य इन्द्रियग्राह्य नहीं है तथा उसको वाणी के द्वारा अभिव्यक्त भी नहीं किया जा सकता। अतीन्द्रिय चेतना के द्वारा गृहीत सूक्ष्म तत्त्व ही वास्तविक है। स्थूल जगत् की पारमार्थिक सत्ता नहीं है। भारतीय दर्शनों का विभाजन सम्पूर्ण भारतीय दर्शनें को प्रत्ययवाद एवं वस्तुवाद-इन दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, जो निम्नलिखित चार्ट से स्पष्ट है 270 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org