Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ आकाश को नौ द्रव्यों में एक द्रव्य माना है। वह एक है और नित्य है। उपाधि भेद से उसके पूर्व-पश्चिम आदि भाग होते हैं। अभिधर्म कोश195 में आकाश का अनावृत्ति के रूप में उल्लेख मिलता है। अनावृत्ति का अर्थ-अनावरणभव अर्थात् जो किसी को न तो आवृत करता है और न किसी से आवृत होता है। आकाश एक धातु है। आकाश धातु का कार्य रूप-परिच्छेद अर्थात् उर्ध्व अधः तिर्यक् रूपों का विभाग करना है। __इस प्रकार आकाश की चर्चा अन्य-अन्य दार्शनिकों ने की है। जैन दर्शन ने उसे एक मौलिक तत्त्व माना है तथा उसके व्यापक स्वरूप का विवेचन भी मिलता है। आधुनिक विज्ञान में आकाश द्रव्य . आधुनिक विज्ञान में आकाश को शुद्ध द्रव्य के रूप में स्वीकार किया है, जो सीमित एवं शान्त है। वैज्ञानिकों के सामने भी प्रश्न उपस्थित हुआ कि यदि विश्व सीमित एवं शान्त है तो अनन्त आकाश रूप समुद्र में जड़ पदार्थों के समूह रूप एक द्वीप जैसा है। तो फिर विश्व की सीमा से परे या विश्व के उस पार क्या है? इस विकट प्रश्न का हल जब उन्हें नहीं मिला तो उन्होंने कह दिया कि विश्व अनन्त है, असीम है। आकाश का रहस्य वैज्ञानिकों के लिए अभी भी अनाकलित रहा है। पाश्चात्य दार्शनिक भी पीछे नहीं हैं। उन्होंने आकाश तत्त्व के लिए बहुत कुछ सोचा है। यूनानी दार्शनिक डिमाक्रिटस एपिकयरस आदि के अनुसार आकाश असत् नहीं अपितु वास्तविक तत्त्व है, जिसमें भौतिक पदार्थ को रहने का स्थान मिलता है। प्लेटो का कोश तत्त्व भी आकाश के लिए प्रयुक्त हुआ है। अरस्तू ने आकाश को अगतिशील बर्तन माना, जिसमें विविध पदार्थों को आश्रय मिलता है। वह विचार जैन दर्शन के उस सिद्धान्त से मिलता-जुलता है, जिसमें आकाश द्रव्य को भाजन कहा है। वह भाजन ऐसा है, जिसमें सब पदार्थों का समावेश होता है। जैम्स.ा मेकविलियम, जो स्कोलेस्टिशिज्म की व्याख्या कर रहे हैं, उसके अनुसार-आकाश एक अभौतिक तत्त्व है, क्योंकि वह रंग तथा तापमान आदि गुणों से रहित तथा सभी पदार्थों का आधार है। उन्होंने आकाश को ज्ञात सापेक्ष वास्तविक माना है। आकाश के तीन रूपों का उल्लेख उन्होंने किया है 1. वास्तविक आकाश (Real Space) 2. शक्य आकाश (Possible Space) . 3. निरपेक्ष आकाश (Absolute Space) / पदार्थों के द्वारा अवगाहित आकाश वास्तविक आकाश है। पदार्थों के द्वारा अनवगाहित आकाश शक्य आकाश है। उपरोक्त दोनों आकाशों से मिलने वाला आकाश निरपेक्ष आकाश है। डेकार्ट ने विस्तार को आकाश कहा है, क्योंकि जहाँ भौतिक पदार्थ हैं, वहीं विस्तार अर्थात् आकाश है। शून्य आकाश की संभावना को अशक्य बताया। डेकार्ट के समकालीन, फ्रेंच दार्शनिक पीयरी गेसेण्डी ने शून्य आकाश के अनस्तित्व सिद्धान्त के प्रतिपादन का खंडन करते हुए प्राचीन अणुवादी यूनानी द्वारा प्रतिपादित निरूपण को सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि गति-रिक्त आकाश में जो अणुओं के बीच अस्तित्ववान है, आकाश होती है। : 156 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only Jain Education Interational