________________ अवधिज्ञान के इसी प्रकार छः भेद भी तत्त्वार्थ सूत्र, कर्मग्रन्थ, नन्दीसूत्रवृत्ति, जैन तर्कभाषा" आदि में भी बताये हैं। इसके अतिरिक्त अवधिज्ञान का तरतम रूप दिखाने के लिए देशावधि, परमावधि एवं सर्वावधि-इसके तीन भेद भी बताये हैं। देव, नरक, तिर्यंच और सागरमनुज्य-इनको देशावधि ज्ञान ही हो सकता है। शेष दो भेद परमावधि और सर्वावधि मुनियों को ही हो सकता है। मनःपर्यव ज्ञान यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष है। इसके दो भेद हैं-1. ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान, 2. विपुलमति मनःपर्यवज्ञान। ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान सामान्य से दो या तीन पर्यायों को ही ग्रहण कर सकता है तथा इस ज्ञान वाला जीव केवल वर्तमानकालावर्ती जीव के द्वारा ही चिन्तयमान पदार्थों को विषय कर सकता है, अन्य नहीं। विपुलमति मनःपर्यवज्ञान बहुत से पर्यायों को जान सकता है तथा त्रिकालवर्ती मनुष्य के द्वारा चिन्तित, अचिन्तित, अर्धचिन्तित-ऐसे तीनों प्रकार के पर्यायों को जान सकता है। मनःपर्यवज्ञान का यह भेद तत्त्वार्थ हरिभद्रीय टीका, तत्त्वार्थ सूत्र, जैन तर्क भाषा में भी है। केवलज्ञान परमार्थ से केवलज्ञान का कोई भेद नहीं है, क्योंकि सभी केवलज्ञान वाले आत्मा समान रूप से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप सभी पदार्थों को ग्रहण करते हैं। भवस्थ केवली, सिद्ध केवली-इसके दो भेद सयोगी केवली, अयोगी केवली-ये सभी उपचार से भेद हैं।58 मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान-साH, वैधर्म्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में स्वामी आदि पाँच कारणों में साधर्म्य है, जिसका स्वरूप आगमों में भी मिलता है। जं सामिकालकरण विसय परोकरवणेहि तुल्लाइं। तष्माभावे सेसाणि य, तेणाइए मतिसुता।। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान-1. स्वामी, 2. काल, 3. कारण, 4. विषय, 5. परोक्षत्व-इन पाँच कारणों से समान है। 1. स्वामी-मतिज्ञान के जो स्वामी हैं, वे ही श्रुतज्ञान के स्वामी हैं और श्रुतज्ञान के जो स्वामी __हैं, वे ही मतिज्ञान के स्वामी हैं, क्योंकि कहा है जत्थ मइनाण तत्थ सुयनाणं। जत्य सुयनाण तत्थ मइनाणं / / जहाँ मतिज्ञान होता है, वहाँ श्रुतज्ञान होता है और जहाँ श्रुतज्ञान होता है, वहाँ मतिज्ञान होता है। 208 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org