________________ 2. काल-मतिज्ञान का जितना स्थितिकाल है, उतना ही श्रुतज्ञान का है। प्रवाह की अपेक्षा से अतीत, अनागत और वर्तमान रूप सम्पूर्ण काल मतिश्रुत का है अर्थात् तीनों काल में मति-श्रुत विद्यमान है। 3. कारण-जिस प्रकार मतिज्ञान इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होता है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान भी इन्द्रियों के निमित्त से होता है, अथवा जिस प्रकार मतिज्ञान क्षयोपशमजन्य है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान भी क्षयोपशमजन्य है। 4. विषय-जिस प्रकार देश में मतिज्ञान का विषय सर्वद्रव्य विषयक है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान का विषय भी सर्वद्रव्य विषयक है। 5. परोक्षत्व-इन्द्रिय आदि के निमित्त से होने के कारण मतिज्ञान जिस प्रकार परोक्ष है, वैसे . ही श्रुतज्ञान भी परोक्ष है, क्योंकि द्रव्येन्द्रिय और द्रव्य पुद्गल स्वरूप होने से आत्मा से - भिन्न है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में वैषम्य / . . यद्यपि जहाँ मतिज्ञान होता है, वहाँ श्रुत अवश्य होता है तथा इन दोनों की कुछ कारणों से लेकर समानता होते हुए लक्षणादि सात कारणों से दोनों में वैधर्म्य भी है अर्थात् भेद भी है। उसी के कारण आगमों में शास्त्रों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का स्वतंत्र अस्तित्व हमें मिलता है। इस विषय को धर्मसंग्रहणी के टीकाकार आचार्यश्री मल्लिसेन ने विशेष रूप से स्पष्ट किया है लक्षण भेदाद्ध हेतु फलभावतो भदेन्द्रिय विभागात्। वल्काक्षर मूकेतर भेदाद, भेदो मतिश्रुतयोः।।" 1. लक्षण भेद, 2. हेतुफल भाव, 3. भेद, 4. इन्द्रियकृत विभाग, 5. वल्क, 6. अक्षर, 7. मूक। 1. लक्षण भेद-मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान के लक्षण में भेद है। जैसे कि जो ज्ञान वस्तु को जानता है, वह मतिज्ञान और जिसको जीव सुनता है, वह श्रुतज्ञान। दोनों का लक्षण भिन्न-भिन्न होने से दोनों ज्ञान के भेद हैं। . 2. हेतुफल भाव-मतिज्ञान हेतु कारण है और श्रुतज्ञान फल (काय) है, क्योंकि यह सनातन नियम है कि मतिज्ञान के उपयोग पूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है, क्योंकि साथ में इतना निश्चित है कि मति-श्रुत की क्षयोपशम लब्धि एक साथ होती है, उसी से वे दोनों उस रूप में एक साथ रहते हैं और इन दोनों का काल भी समान होता है। लेकिन उपयोग लब्धि के सामर्थ्य से वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने का विशेष परुषार्थ दोनों का साथ में नहीं हो सकता. क्योंकि यह सैद्धान्तिक नियम है कि दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते, जैसा कि स्तवन में कहा है सिद्धान्तवादी संयमी रे भाषे एह विरतंत। दो उपयोग होवे नहीं रे एक समय मतिवंत रे प्राणी।। अर्थात् सिद्धान्तवादी संयमियों का मत है कि एक समय में दो उपयोग संभव नहीं है। 3. भेद-मतिज्ञान के 28 भेद एवं श्रुतज्ञान के 14 अथवा 20 भेद हैं। इस प्रकार प्रभेदों में भेद होने से दोनों में भेद है। 209 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org