Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ प्रमाण-संशय, विपर्यय आदि से रहित वस्तु तत्त्व का जिससे ज्ञान किया जाता है, वह प्रमाण है। पूजित विचार वचनश्च मीमांसा शब्द प्रमाण मीमांसा का लक्ष्य केवल तर्क जाल में उलझना न होकर मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करना है सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणः। पदार्थ का सम्यक् ज्ञान प्रमाण कहलाता है। उपाध्याय यशोविजय ने प्रमाण का सामान्य लक्षण बताते हुए कहा है स्व पर व्यवसायिज्ञानं प्रमाणमिति। स्व एवं पर का यथार्थ निश्चय करानेवाला ज्ञान प्रमाण है। दर्शन जगत् का प्रमुख विषय है-प्रमाण। मनुष्य जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है और ज्ञान के साथ न को प्रमाण कहते हैं। 'यथार्थानुभवः प्रभा, तत्साधनं प्रमाणम्'5-प्रमाण के इस सामान्य लक्षण के विषय में सभी दार्शनिक एकमत हैं। पर उसके लाक्षणिक स्वरूप एवं विभाग व्यवस्था के विषय में विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं में मतभेद देखा जाता है। कुछ नैयायिकों के मतानुसार प्रमा का साधकतम साध न है। 'इन्द्रिय सन्निकर्ष 16 अतः वही प्रमाण है। जबकि कुछ प्राचीन नैयायिकों के अनुसार वह ज्ञानात्मक और अज्ञानात्मक सामग्री जो प्रमाण का साधन है, वही प्रमाण है अतः इन्द्रिय मन, पदार्थ, प्रकाश आदि सभी प्रमाण हैं। सांख्य इन्द्रियवृत्ति से, मीमांसक इन्द्रिय से, बौद्ध सारूप्य एवं योग्यता से यथार्थज्ञान स्वीकार करते हैं, अतः उनके यहाँ क्रमशः इन्द्रियवृत्ति, इन्द्रिय सारूप्य एवं योग्यता को प्रमाण माना गया है, क्योंकि ये ही प्रमाण के साधन बनते हैं। न्यायावतार में भी प्रमाण का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि-'प्रमाण स्वपराभासि।" तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में भी प्रमाण का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि 'स्वार्थ व्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाणम्' / परीक्षामुख में प्रमाण का लक्षण बताते हुए कहा है-'स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्'। जैन दर्शन में प्रमाण स्वरूप जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान ही प्रमाण का सर्वाधिक निकट का साधन बनता है, क्योंकि जानना चेतन-क्रिया है। अतः उसका साधन भी चेतन होना चाहिए। जैसे अंधकार की निवृत्ति प्रकाश से होती है, वैसे ही अज्ञान की निवृत्ति ज्ञान से होती है। सन्निकर्ष, इन्द्रियां, पदार्थ, प्रकाश आदि अचेतन हैं, अज्ञानरूप हैं। अतः अज्ञाननिवृत्ति में साधकतम साधन नहीं बन सकते। प्रमाणहित-प्राप्ति और अहित-परिहार में सक्षम होता है, अतः वह ज्ञान ही होगा, अज्ञान नहीं। आगमयुगीन जैनदर्शन में प्रमाणमीमांसा का विकास नहीं हुआ था। आगमों में सर्वत्र पांच ज्ञानों की चर्चा उपलब्ध होती है। भगवती, ठाणं, अनुयोगद्वार में उपलब्ध होने वाले प्रमाण संबंधित प्रक्षिप्त होने से उत्तरवर्ती है। उपाध्याय यशोविजय ने जैन तर्क परिभाषा में स्व एवं पर का निश्चय कराने वाले ज्ञान को प्रमाण माना है। स्व-पर का प्रकाशन करना, वह ज्ञान का असाधारण स्वरूप है। ज्ञान के द्वारा होने वाला प्रकाशन जब यथार्थ निश्चयात्मक होता है, तब वह व्यवसायिक ज्ञान कहलाता है। स्व एवं पर का व्यवसायी ज्ञान वो ही प्रमाण है। 226 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org