Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ के आधार पर स्थापना, भूत-भावी पर्याय के आधार पर द्रव्य एवं वर्तमान पर्याय के आधार पर भाव-निक्षेप का निर्धारण होता है। निक्षेप काल्पनिक नहीं है अपितु वस्तु के स्वरूप पर आधारित यथार्थ है। नाम आदि चारों निक्षेपों का संक्षिप्त विवेचन यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। नाम-निक्षेप वस्तु का इच्छानुसार अभिधान किया जाता है, वह नाम-निक्षेप है। नाम मूल अर्थ से सापेक्ष या निरपेक्ष दोनों प्रकार का हो सकता है किन्तु जो नामकरण संकेत मात्र से होता है, जिससे जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया, लक्षण आदि निमित्तों की अपेक्षा नहीं होती है, वह नाम निक्षेप है। एक अनक्षर व्यक्ति का नाम अध्यापक रख दिया। एक गरीब का नाम लक्ष्मीपति रख दिया। अध्यापक और लक्ष्मीपति का जो अर्थ होना चाहिए, वह उनमें नहीं मिलता, इसलिए ये नाम निक्षेप कहलाते हैं। नामनिक्षेप में शब्द के अर्थ की अपेक्षा नहीं रहती है। जैन सिद्धान्तदीपिका में नाम-निक्षेप को परिभाषित करते हुए कहा गया 'तदर्थनिरपेक्षं संज्ञाकर्मनाम' | मूल शब्द में अर्थ की अपेक्षा न रखने वाले संज्ञाकरण में नाम-निक्षेप कहा जाता है, जैसे-अनक्षरस्य उपाध्याय इति नाम-प्रत्येक अर्थवान शब्द नाम कहलाता है। उनके द्वारा पदार्थ का नाम होता है। नाम-निक्षेप की लक्षण आममग्रंथों में इस प्रकार मिलती हैयद्धस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यर्थे तदर्थंनिरपेक्षम् पर्यायान भिधेयं च नाम यादृच्छिकं च तथा।। अनुयोगद्वार सूत्र में भी कहा है'नाम स्थापनयोः कः प्रतिविशेषः नाम यावत्कथिकं स्थापना इत्वारिका व स्याद यावत्कथिका वा।16 भाष्यकार ने भी बताया है कि 'जावदव्वं च पाएण इति'166 शब्द या अर्थ की आभ्यन्तरनिष्ठ परिणति को नाम-निक्षेप कहते हैं। उपाध्याय यशोविजय ने जैन तर्कपरिभाषा में बताते हुए कहा है-प्रकृतार्थ निरपेक्षे ति। नाम किसी एक संकेत के आधार पर किया जाता है, इसलिए इसका कोई पर्यायवाची शब्द नहीं होता है। नामकरण करने के मूल अर्थ की अपेक्षा न हो, फिर भी वैसा नामकरण किया जा सकता है। इस सिद्धान्त को ध्यान में रखकर जिनभद्रगणि ने नाम को यादृच्छिक बताया है। स्थापना निक्षेप पदार्थ का आकाराश्रित व्यवहार स्थापना-निक्षेप है। मूल अर्थ से शून्य वस्तु को उसी अभिप्राय से स्थापित करने को स्थापना निक्षेप कहा जाता है। 'तदर्थशून्यस्य तदभिप्रायोण प्रतिष्ठापनं स्थापना' अर्थात् जो तदरूप नहीं है, उसको तदरूप मान लेना स्थापना-निक्षेप है, जैसे-उपाध्यायप्रतिकृतिः स्थापनोपाध्यायः। स्थापना सद्भाव एवं असद्भाव के भेद से दो प्रकार की होती है। अतः स्थापना निक्षेप दो प्रकार का होता है। सद्भाव स्थापना-एक व्यक्ति अपने गुरु के चित्र को गुरु मानता है। यह सद्भाव स्थापना है-'मुख्याकार समाना सद्भावस्थापना'। असदभाव स्थापना-एक व्यक्ति ने शंख आदि में अपने गुरु का आरोप कर लिया, यह असद्भाव स्थापना है तदाकारशून्य चासदभाव स्थापना।168 241 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org