Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ भी है, अनित्य भी। इस प्रकार परस्पर विरोधी अनेक धर्मयुगल वस्तुओं में अंतगर्भित है। उसका परिज्ञान हमें एकान्त दृष्टि से नहीं हो सकता। उसके लिए अनेकान्तात्मक दृष्टि चाहिए। __सर्वप्रथम आचार्य सिद्धसेन ने आगमिक स्याद्वाद को अनेकान्तरूप से आख्यायित करने का शुभारम्भ किया। तदनन्तर मल्लवादियों ने अनेकान्तवाद की भूमिका निभाई। इसी स्याद्वाद को स्वतन्त्रता से ग्रन्थरूप देने का श्रेय आचार्य हरिभद्र के अधिकार में आता है। इनका प्रत्यक्ष उदाहरण अनेकान्त जयपताका है। इन्हीं के समवर्ती आचार्य अकलंक जैसे विद्वानों ने अनेकान्तवाद की पृष्ठभूमि को विलक्षण बनाया है। ऐसे ही वादिदेवसूरि श्रमण संस्कृति के स्याद्वाद सिद्धान्त के समर्थक सृजनकार के रूप में अवतरित हुए हैं। उन्होंने स्याद्वाद को अनेकान्तवाद रूप में आलिखित करने का आत्मज्ञान किया है। आचार्य रत्नप्रभाचार्य रत्नाकरावतारिका में भाषा के सौष्ठव से अनेकान्तवाद को अलंकृत करने का क्रियात्मक प्रयास किया है। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने भी स्याद्वाद के स्वरूप को निरूपित करने में नैष्ठिक निपुणता रखते हुए अनेकान्त संज्ञा से सुशोभित किया है। __ अनेकान्त परम्परा को नव्य न्याय की शैली से सुशोभित करने का श्रेय उपाध्याय यशोविजय के हाथों में आता है। इन्होंने अधिकारिता से अनेकान्त व्यवस्था में अनेकान्त को सत्-असत्, नित्य-अनित्य, सामान्य-विशेष, अभिलाप्य-अनभिलाप्य-इन सभी को लिपिबद्ध करके अनेकान्त के विषय को विरल और विशद् एवं विद्वद्गम्य बनाने का अपूर्व बुद्धिकौशल उपस्थित किया है और अपर हरिभद्र के नाम से अपनी ख्याति को दार्शनिक जगत् में विश्रुत कर गये। अनेकान्त को परिभाष्शित करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं-एक ही वस्तु सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य स्वभाव वाली है। ऐसी एक ही वस्तु के वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी शक्तियुक्त धर्मों को प्रकाशित करने वाला अनेकान्त है।' आचार्य अकलंक एकान्त के प्रतिक्षेप कथन के द्वारा अनेकान्त को व्याख्यायित करते हुए कहते -- हैं कि वस्तु सत् ही है, असत् ही है, इस प्रकार के एकान्तवाद को निरसित करने वाला अनेकान्त है।' वस्तु अनेक धर्मों का समुदाय मात्र नहीं है किन्तु परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले अनेक धर्मों का आधार है। द्रव्य अनन्त धर्मों की समष्टि है। ये धर्म परस्पर विरोधी हैं इसलिए द्रव्य का द्रव्यत्व बना हुआ है। यदि सब धर्म अविरोधी होते तो द्रव्य का द्रव्यत्व समाप्त हो जाता। विरोधी धर्मों का युगपत् सहावस्थान होना द्रव्य का स्वभाव है। अनेकान्त जैनदर्शन का मौलिक सिद्धान्त है। स्याद्वाद का सरल अर्थ यह है कि अपेक्षा से वस्तु का बोध अथवा प्रतिपादन जब तर्क, युक्ति और प्रमाणों की सहायता से समुचित अपेक्षा को लक्ष्य में रखकर वस्तुत्व का प्रतिपादन किया जाता है तब उनमें किसी भी प्रकार के विरोध को अवकाश नहीं रहता, क्योंकि जिस अपेक्षा से प्रवक्ता किसी धर्म का किसी वस्तु में निदर्शन कर रहा हो, यदि उस अपेक्षा से उस धर्म की सत्ता प्रमाणादि से अबाध्य है तो उसको स्वीकारने में अपेक्षावादियों को कोई हिचक का अनुभव नहीं होता। 254 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org