________________ न्यायशास्त्र के प्रमुख तीन अंग-प्रमेय, प्रमिति, प्रमाता न्याय पद्धति की शिक्षा देने वाला शास्त्र न्यायशास्त्र कहलाता है। इसके मुख्य चार अंग हैंप्रमाता (आत्मा)-तत्त्व की मीमांसा करने वाला। प्रमाण (यथार्थज्ञान)-मीमांसा का मानदण्ड। प्रमेय (पदार्थ)-जिसकी मीमांसा की जाये। प्रमिति (प्रमाण का फल)-मीमांसा का फल। प्रमेय (पदार्थ का स्वरूप) प्राणस्य विषयो द्रव्यापर्यायात्मकं वस्तु / प्रमाण का विषय द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु है। अर्थक्रिया सामार्थ्यात्। द्रव्य पर्याय रूप वस्तु ही अर्थक्रिया के सामर्थ्य से प्रमाण का विषय है। तल्लक्षणतवाद् वस्तुनः।" अर्थक्रिया ही वस्तु का लक्षण है। पूर्वोतराकार परिहार स्वीकार स्थिति लक्षणपरिणामेन। स्यार्थ क्रियो पपतिः। पूर्व पर्याय का परित्याग, उत्तर पर्याय का उत्पाद और स्थिति अर्थात् ध्रौव्य स्वरूप परिणाम से द्रव्य-पर्यायात्मक पदार्थ में ही अर्थक्रिया संगत होती है। _ 'प्रमेयसिद्धि प्रमाणाद्धि'-प्रमेय की सिद्धि प्रमाण के अधीन होती है। जब तक प्रमाण का निर्णय नहीं होता, तब तक प्रमेय की स्थापना नहीं की जा सकती। प्रमेय के विषय में दो मत हैं-कुछ दर्शन / प्रमेय की वास्तविकता को स्वीकार करते हैं और कुछ नकारते हैं। जो प्रमेय की वास्तविकता मानते हैं वो वस्तुवादी या यथार्थवादी दर्शन कहलाते हैं और जो प्रमेय को वास्तविक नहीं मानते, वे प्रत्ययवादी दर्शन कहलाते हैं। भारतीय दर्शन में बौद्ध एवं वेदान्त प्रत्ययवादी दर्शन एवं शेष वस्तुवादी दर्शन हैं। प्रमेय के स्वरूप में भी नानात्व दृष्टिगोचर होता है। यह मुख्य चार प्रकार का है 1. प्रमेय नित्य है, 2. प्रमेय अनित्य (क्षणिक) है, 3. कुछ प्रमेय नित्य व कुछ अनित्य है, 4. प्रमेय नित्यानित्य है। जहाँ वेदान्त, सांख्य आदि दर्शन प्रमेय को कुटस्थ नित्य मानते हैं, वहाँ बौद्ध दर्शन में पदार्थ को उत्पाद और व्ययशील अनित्य, निश्चय विनाशी माना है। न्याय दर्शन कुछ पदार्थों, जैसे-आत्मा, आकाश आदि को नित्य मानता है तथा दीपशिखा आदि कुछ को अनित्य मानता है। प्रमेय का स्वरूप जैन दर्शन नित्यानित्यवादी है। उसके अनुसार आकाश से लेकर दीपशिखा तक के सभी पदार्थ नित्यानित्य हैं। आकाश के स्वभावगत परिणमन होता है इसलिए वह अनित्य भी है और दीपशिखा के परमाणु ध्रुव हैं, अतः वह नित्य भी है। स्याद्वाद की मर्यादा के अनुसार कोई भी पदार्थ केवल नित्य या केवल अनित्य नहीं हो सकता। जैसा कि आचार्य हेमचन्द्र के अन्ययोगव्यवच्छेदिका में लिखा है आदिपमाव्योम् समस्वभावं स्यादवादमुद्रानतिभेदिवस्तु। तन्नित्यमेवैककम नित्यमन्यदिति त्यादाज्ञाद्विषतां प्रलापा। 234 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org