Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ . . स्मृति का दैनन्दिन जीवन में उपयोगितापूर्ण स्थान है, इसकी उपयोगिता प्राचीन और अर्वाचीन सभी विचारधाराओं में एकमत से मान्य रही है। सभी तार्किक विद्वान् स्मृति की परिभाषा किसी एक आधार पर नहीं करते। कणाद ने आभ्यान्तर कारण संस्कार के आधार पर ही स्मरण का लक्षण किया है-'आत्मनः संयोगविशेषात् संस्कारशच्च स्मृतिः'। पतंजलि ने विषय-स्वरूप के ही निर्देश द्वारा ही स्मृति को लक्षित किया है। . 'अनुभूत विषयाऽसम्प्रमोषः स्मृतिः।-कणाद ने अनुगामी प्रशस्तपाद में अपने भाष्य में कारण, विषय और कार्य-इन तीनों के द्वारा स्मृति का निरूपण किया है। जैन परम्परा के स्मरण और उसके कारण पर तार्किक शैली से विचार करने का प्रारम्भ आचार्य . पूज्यपाद और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा हुआ। लक्षण के पश्चात् स्मृति प्रमाण है या नहीं इस विषय पर विचार करना आवश्यक है। स्मृति को प्रमाण मानने के बारे में दो परम्पराएँ हैं-जैन और जैनेतर। जैन परम्परा में स्मृति प्रमाणरूप से स्वीकृत है। जैनेतर परम्परा में वैदिक, बौद्ध आदि सभी दर्शन स्मृति को प्रमाण नहीं मानते। स्मृति को प्रमाण नहीं मानने वाली ये विचारधाराएँ भी इसे अप्रमाण या मिथ्याज्ञान ही कहती पर वे प्रमाण शब्द से केवल उसका व्यवहार नहीं करते। जैसा कि न्यायमंजरी में लिखा है न स्मृतेरप्रमाणत्वं गृहीतग्राहिताकृतम्। : अपित्वनर्थजन्यत्वं तदप्रामाण्यकारणम्। अर्थात् गृहीतग्राही होने के कारण स्मृति अप्रमाण है, ऐसी बात नहीं है अपितु पदार्थ से उत्पन्न न होने के कारण वह अप्रमाण है। '. इन्द्रिय प्रत्यक्ष और स्मृति-दोनों का योग होने से जो ज्ञान होता है, वह प्रत्यभिज्ञा है, अर्थात् प्रत्यक्ष और स्मृति के मिश्रण से संकलनात्मक ज्ञान को प्रत्यभिज्ञा कहते हैं। उसके तीन रूप बनते हैं 1. प्रत्यक्ष और स्मृति का संकलन, 2. दो प्रत्यक्षों का संकलन, 3. दो स्मृतियों का संकलन। तर्क भारतीय दर्शन का सुपरिचित शब्द है। चिन्तन के क्षेत्र में इसका महत्त्व बहुत. पहले से रहा है। न्यायशास्त्र में इसका विशेष अर्थ है। अनुमान के लिए व्याप्ति की अनिवार्यता है और व्याप्ति के लिए तर्क की अनिवार्यता है, क्योंकि इसके बिना व्याप्ति की सत्यता का निर्णय नहीं किया जा सकता। प्रायः सभी तर्कशास्त्रीय परम्पराएँ तर्क के इस महत्त्व को स्वीकार करती हैं। उनमें यदि कोई मतभेद है तो वह इसके प्रामाण्य के विषय में नहीं गिनते, प्रमाण का अनुग्राहक मानते हैं। जैन परम्परा में यह प्रमाणरूप से स्वीकृत है। इसका स्वतंत्र कार्य है, इसलिए यह परोक्ष प्रमाण का तीसरा प्रकार है। जहाँ-जहाँ धूम होती है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है-यह व्याप्ति है। इस व्याप्ति का ज्ञान तर्क-प्रमाण के द्वारा होता है, अतः यह प्रमाण है। .. अनुमान न्यायशास्त्र का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। अनुमान शब्द अनु और मान इन दो शब्दों के योग से निष्पन्न हुआ है। जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति से पूर्व अन्य ज्ञान की अपेक्षा रखता है, वह अनुमान है। आचार्य हेमचन्द्र ने अनुमान का लक्षण साधनान् साध्य विज्ञानम् अनुमानम् / / 232 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org