Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं कि वस्तु तस्तु गुणानां तदरूपं न स्वान्मनः पृथक् / आत्मा स्यादन्ययाऽनात्मा ज्ञानाधय जड़ भवेत्।। यदि ज्ञानादि गुणों को आत्मा से भिन्न मानें तो उनके भिन्न होने से स्वतः आत्मा अनात्मरूप सिद्ध हो जाएगी और ज्ञानादि भी जड़ हो जायेंगे। आत्मा जो चेतनवत है, उसमें से ज्ञानादि गुण निकल जाने पर मृत शरीर रूप हो जायेंगे, अर्थात् जड़ बन जाएगी और दूसरी तरफ ज्ञानादि गुण आत्मा से अलग होने पर आधार रहित हो जायेंगे किन्तु ऐसा कभी भी शक्य नहीं है। ज्ञानादि गुण आत्मा के लक्षण हैं, जिन्हें कभी भी आत्मा से पृथक् नहीं किया जा सकता है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्म उपनिषद् में भी कहा है-आत्मा का ही स्वरूप प्रकाश शक्ति की अपेक्षा से ज्ञान कहलाता है। उपाध्याय हर्षवर्धन ने अध्यात्म बिन्दु ग्रंथ में बताया है कि पीतस्निग्ध गुरुत्वानां यथा स्वर्णान्न भिन्नता, तथा दुगुज्ञानवृताना निश्चयान्नात्मनो भिदा। व्यवहारेण तु ज्ञानादीनि भिन्नानि चेतनात, राहोः शिरोपदप्येषोऽभेद भेद प्रतीतिकृत / / अर्थात् जैसे पीलापन, स्निग्धता और गुरुत्व स्वर्ण से भिन्न नहीं है, उसी प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा भिन्न नहीं है। व्यवहारनय से तो ज्ञानादि गुण आत्मा से भिन्न प्रतीत होते हैं, जैसे-राहु का सिर। इसमें राहु और सिर के बीच में अभेद होने पर भी भेद की प्रतीति होती है, उसी प्रकार आत्मा ज्ञानादि गुणों के अभेद होने पर भी व्यवहार से आत्मा और ज्ञानादि गुणों में परस्पर भेद की प्रतीति होती है। आचार्य अमृतचंद्र ने प्रवचनसार की तत्त्वार्थ दीपिका नामक टीका में कहा है-"आत्मा से अभिन्न केवल-ज्ञान ही सुख है।"7 इस व्याख्या से भी यही स्पष्ट होता है कि ज्ञान ज्ञाता से भिन्न नहीं है। समयसार की टीका प्रवचन रत्नाकर में भी आत्मा और ज्ञान में तादात्म्य बताया है और कहा गया है कि "ज्ञान स्वभाव और आत्मा एक ही वस्तु है। दोनों में अन्तर नहीं है।"88 आचारांग सूत्र में भी कहा गया है कि “जे आया से विण्णायाः जे विण्णाया से आया" अर्थात् जो विज्ञाता है अर्थात् जानने वाला है, वही आत्मा है और जो आत्मा है, वही विज्ञाता है। इसमें यह स्पष्ट होता है कि ज्ञायक गुण या आत्मा अभिन्न है, किन्तु यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि ज्ञान, ज्ञेय आधारित भी है। ज्ञेय का ज्ञाता से भेद होने के कारण ज्ञान में आत्मा से कथंचित् भिन्नता भी है। जैन दर्शन गुण और गुणी में निश्चयनय से अभेद और व्यवहार नय से भेद मानता है। ज्ञान ज्ञाता अभिन्न है, किन्तु ज्ञेय से भिन्न भी है। इस प्रकार ज्ञाता और ज्ञान में जैनदर्शन भेदाभेद को स्वीकार करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान आत्मा का लक्षण है और उससे अभिन्न है, लेकिन यहाँ कोई यह प्रश्न करे कि यदि आत्मा का ज्ञान के साथ तादात्म्य है, आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है तो फिर उसे ज्ञान की उपासना करने की शिक्षा क्यों दी जाती है। उसका समाधान यह है कि यद्यपि ज्ञान का आत्मा के साथ तादात्म्य है, तथापि अज्ञानदशा में वह एक क्षण मात्र भी शुद्ध ज्ञान का संवेदन नहीं करता है। ज्ञान दो कारणों से प्रकट होता है। बुद्धत्व 215 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org