Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ हेतु चार प्रकार का होता है1. विधि-साधक विधि हेतु, 2. विधि-साधक निषेध हेतु, 3. निषेध-साधक विधि हेतु, 4. निषेध-साधक निषेध हेतु। विषय-विषयी के सन्निपात और दर्शन के बिना अवग्रह नहीं होता। अवग्रह के बिना ईहा, ईहा के बिना अवाय, अवाय के बिना धारणा, धारणा के बिना स्मृति, स्मृति के बिना संज्ञा, संज्ञा के बिना चिन्ता और चिन्ता के बिना आभिनिबोध नहीं हो सकता। श्रुतज्ञान का विस्तार दो रूपों में हुआ है-एक स्याद्वाद और दूसरा नय। जैन तार्किकों ने प्रमेय की व्यवस्था श्रुत-ज्ञान के आधार पर की, स्याद्वाद और नय के द्वारा की। प्रामाणिकों की परिषद् में श्रुतज्ञान का ही आलम्बन लिया गया और उसी के आधार पर न्याय का विकास हुआ। उसे इस भाषा में प्रस्तुत किया जा सकता है “जावइया वयणपहा तावइया हुति सुयविगप्पा" - जितने वचन के प्रकार हैं, उतने ही श्रुतज्ञान के विकल्प हैं। ये असंख्य हैं। प्रमाण भी असंख्य हो सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जैन न्याय के अनुसार प्रमाणों की संख्या निर्धारण सापेक्ष है। दर्शनयुग का जैन न्याय जैन न्याय के विकास का द्वितीय युग प्रथम की तुलना में क्रान्तिकारी कहा जा सकता है। इस युग में अन्यान्य दर्शनों के बीच वैचारिक सामंजस्य स्थापित करने की दृष्टि से कुछ नई प्रस्थापनाएँ और नए प्रयास किये गये। दर्शन की मीमांसा ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में प्रारम्भ हो चुकी थी। ईसा की पहली शताब्दी तक उसमें योगीज्ञान या प्रत्यक्षज्ञान प्रमुख था और तर्क गौण। उसके बाद दर्शन के क्षेत्र में प्रमाण मीमांसा या न्यायशास्त्र का विकास हुआ है। दर्शन में प्रमाण का महत्त्वपूर्ण स्थान है, इसलिए प्रमाण के द्वारा समर्थित दर्शनयुग का प्रारम्भ ईसा की दूसरी शताब्दी से होता है। इस युग में प्रमाण शास्त्र या न्यायशास्त्र का दर्शनशास्त्र के साथ गठबन्धन हो गया। प्रो. जेकोबी के अनुसार ई. 200-450, धूव्र के अनुसार ईसा पूर्व की शताब्दी में न्यायदर्शनकार गौतम ऋषि ने न्यायसूत्र की रचना की। ईसा की पहली शती में कणाद ऋषि ने वैशेषिक सूत्र की रचना की। ईसा की चौथी शती में बादरायण ने ब्रह्मसूत्र की रचना की। ई.पू. 6-7वीं शती में कपिलमुनि ने सांख्यसूत्र का प्रणयन किया। ईसा की दूसरी से चौथी शती के बीच ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका की रचना की। न्यायशास्त्रों के विकास में बौद्ध और नैयायिकों ने पहल की। बौद्ध दार्शनिक नागार्जन (ई. 300) ने गौतम के न्यायसूत्र की आलोचना की। वात्स्यायन (ई. 400) ने न्यायसूत्र भाष्य से उस आलोचना का उत्तर दिया। बौद्ध आचार्य दिङ्नाग (ई. 500) ने वात्स्यायन के विचारों की समीक्षा की। उद्योतकर (ई. 600) ने न्यायवार्तिक में उनका उत्तर दिया। बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति (ई. 700) ने 'न्यायबिन्दु' में उद्योतकर की समीक्षा की, प्रत्यालोचना की। बौद्ध आचार्य धर्मोत्तर (ई. 8-9वीं) ने न्यायबिन्दु की टीका 221 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org