Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ अंतराय-इन चारों घातिकर्मों का सम्पूर्ण समूल क्षय होता है, तब केवलज्ञान की प्राप्ति होती है और ऐसी विभूति ही सर्वज्ञ नाम से जानी जाती है। केवलज्ञान की विशिष्टताएँ 1. केवलज्ञान होने के बाद उसके साथ अन्य चारों क्षायोपशमिक ज्ञान की कोई भी आवश्यकता नहीं रहती। 2. यह परिपूर्ण रूप से एक ही साथ उत्पन्न होता है। पहले थोड़ा, फिर अधिक, ऐसा केवलज्ञान ____ में नहीं होता है। 3. इसमें संसार के सम्पूर्ण ज्ञेय को जानने की शक्ति होती है। 4. इसकी तुलना में दूसरा कोई ज्ञान नहीं है। 5. स्वयं प्रकाशी होने से दूसरे ज्ञान की मदद की सर्वथा आवश्यकता नहीं रहती। 6. विशुद्ध कर्मों की सत्ता क्षय होने से अब तक एक भी परमाणु अवरोधक नहीं बन सकता। 7. सूक्ष्म तथा स्थूल सभी पदार्थों को जानने की शक्ति वाला है। 8. लोकाकाश और अलोकाकाश को यथार्थ रूप से जानता है। 9. ज्ञेय अनन्त होने से केवलज्ञान के पर्याय भी अनन्त होते हैं। 10. अनन्त भूत-भविष्य और वर्तमान काल में रहे हुए समस्त सत् पदार्थों का अनेक पयोंसह ज्ञान होता है। इन सभी कारणों के कारण ही स्व-पर व्यवसायिज्ञान प्रमाणम् तथा यथार्थ ज्ञाने प्रमाणम् आदि विषयक सम्यग् ज्ञान प्रमाण की कोटि में आते हैं। केवलज्ञान का उपयोग नहीं करना पड़ता है। उनको सभी साक्षात् दिखता है। यह ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् कभी भी वापिस चला नहीं जाता। यह ज्ञान वाला जीवात्मा शेष चार अघाती कर्मों का क्षय करके अजर-अमर बन जाता है अर्थात् मोक्षगति को प्राप्त करता है। उपाध्याय यशोविजय रचित ज्ञानबिन्दु तथा विशेषावश्यक भाष्य में भी केवलज्ञान का ऐसा ही विवेचन मिलता है। ज्ञान के प्रभेद मतिज्ञान, स्मृतिज्ञान, संज्ञाज्ञान, चिन्ताज्ञान और आभिनिबोधिक ज्ञान-ये पाँचों ही समान अर्थ के द्योतक हैं। वस्तुतः ये भिन्न-भिन्न विषय के प्रतिपादक हैं। इसी से इनके लक्षण भी भिन्न-भिन्न देखने को मिलते हैं तथा अनुभव, स्मरण, प्रत्यभिज्ञा, तर्क और अनुमान इसके अपर नाम हैं। ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा-ये मतिज्ञान के पर्यायवाची नाम हैं। __उपरोक्त पाँच प्रकार का ज्ञान दो प्रकार का होता है-इन्द्रिय और इन्द्रिय निमित्तक। इन्द्रिय निमित्तक ज्ञान पाँच प्रकार का होता है, वे इस प्रकार हैं 1. स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श का ज्ञान, 2. रसेन्द्रिय से रस का ज्ञान, 3. घ्राणेन्द्रिय से गंध का ज्ञान, 205 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org