Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ पंचविध जीव जीव एकेन्द्रिय एकेन्द्रिय द्वइन्द्रिय तेइन्द्रिय तेइन्द्रिय चउरिन्द्रिय चउरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय पंचेन्द्रिय षड्विध जीव जीव पृथ्वी अप तेऊ वाऊ वनस्पति वनस्पात त्रस चतुर्दशविध जीव-किसी अपेक्षा से जीव के 14 भेद भी हैं, जैसे-एकेन्द्रिय जीव के चार भेद। पंचेन्द्रिय जीव के चार भेद और विक्लेन्द्रिय जीव के 6 भेद हैं- 563 भेद मनुष्य 303 देव 198 तिर्यंच नारक 563 इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जैन दर्शन का जीव विज्ञान विस्तृत गहन और गम्भीर है। अन्य दर्शनों में जीवास्तिकाय का इतना गम्भीर विवेचन उपलब्ध नहीं होता। जीव एवं आत्मा के स्वरूप का : जितना विस्तार तथा भेद एवं प्रभेद जैन दर्शन में है, उतना अन्य किसी भी दर्शन में नहीं किया गया है। जीवास्तिकाय का स्वरूप किसी दर्शन में नहीं मिलता है। भगवान महावीर की ही अनूठी देन है, जिसको उपाध्यायजी ने अपने शास्त्रों में सुन्दर भावों के साथ आलेखित किया हैअनस्तिकायद्रव्य-काल षड्द्रव्यों की अवधारणा में कालद्रव्य एक द्रव्य के रूप में घोषित है। वह भी अन्य द्रव्यों की . तरह लोकव्यापी द्रव्य है। वाचक उमास्वाति ने कालश्च55 सूत्र के द्वारा काल कों द्रव्यों के अन्तर्गत समाहित किया। काल भी द्रव्य रूप है। द्रव्य सत् है अतः काल भी द्रव्य होने से सत् है। वह भी गुण तथा पर्याय युक्त है। अंगश्रुत आचारांग56 में काल शब्द का प्रयोग कहीं-कहीं मिलता है, जैसे-मृत्यु, समय-सूचक आदि अर्थ में प्रयुक्त काल शब्द दृष्टिगोचर होता है। काल द्रव्य की परिभाषा-इस मनुष्य क्षेत्र में सतत गगन मण्डल में सूर्य चन्द्रादि ज्योतिषचक्र लोक के स्वभाव से घूमते रहते हैं। उनकी गति से काल की उत्पत्ति होती है और काल विविध प्रकार का है। ज्योतिष करंडक नामक ग्रंथ में भी कहा है कि लोक के स्वभाव से यह ज्योतिषचक्र उत्पन्न हुआ और उसकी ही गति विशेष से विविध प्रकार का काल उत्पन्न होता है, ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है। 165 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org