Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________ आचार्य कुंदकुंद के मत से आश्रव चार हैं-समयसार307 में अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को आश्रव माना है। विनयविजय ने भी आचार्य कुन्दकुन्द का अनुसरण करते हुए इन चारों को ही आश्रव माना है। वाचक उमास्वाति के मत से आश्रव के 42 भेद हैं-5 इन्द्रिय, 4 कषाय, 5 अव्रत और 25 क्रिया आदि। आगम के अनुसार आचार्य भिक्षु ने जिन मिथ्यात्व आदि को आश्रव कहा है, उन्हीं को उमास्वाति ने बंध हेतु कहा है मिथ्यादर्शना विरतिप्रमादकषायायोगा बन्ध हेतवः।308 आत्मा के शुभाशुभ परिणाम तथा योग के द्वारा होने वाला आत्मप्रदेशों का कम्पन भावाजुव कहलाता है और उसके द्वारा आठ प्रकार के कर्मप्रदेशों का ग्रहण होता है, वह द्रव्याश्रव कहलाता है। आश्रव के भेद-प्रभेद आश्रव मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय योग मनयोग वचनयोग काययोग शुभ अशुभ शुभ अशुभ शुभ अशुभ वैकल्पिक रूप में आश्रव सांपरायिक ऐर्यापथिक इन्द्रिय कषाय अव्रत क्रिया अशुभ शुभ अशुभ शुभ अशुभ शुभ 5 4 5 6 मन मन वचन वचन काया काया सकषायी आत्मा के सांपरायिक आश्रव तथा वीतराग आत्मा के ऐर्यापथिक आश्रव होता है। संवर तत्त्व-आश्रव का निरोध करना, वह संवर कहलाता है अर्थात् आनेवाले कर्मों को रोकना। जिसके द्वारा कर्मों को रोका जाता है, ऐसे व्रत पच्चखाण तथा समिति, गुप्ति, संवर कहलाते हैं संप्रियते कर्म कारणं प्राणातिपादि निरूध्यते येन परिणामेन स संवरः। कर्म और कर्म के कारण प्राणातिपाति आदि जो आत्म-परिणाम के द्वारा रोके जाएँ, वे संवर। तत्त्वार्थ टीका में संवर की व्याख्या इस प्रकार की है आश्रवदोष परिवर्जन संवरः।। आश्रव के दोषों को छोड़ना ही संवर है अथवा संवर यानी आत्मनः कर्मादान हेतुभूत परिणामाभावः संवरः। आत्मा के कर्मादान हेतुभूत परिणाम का अभाव होना संवर है। 173 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org