Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ द्रव्य एवं तत्त्व में मूलभूत कुछ अंतर नहीं है किन्तु पदार्थ एवं तत्त्व में केवल सापेक्ष स्थिति ही है। गुण के व्यष्टिगत दृष्टिकोण को तत्त्व कहते हैं जबकि गुण का समूहगत दृष्टिकोण पदार्थ कहलाता है। तत्त्व का अर्थ यही है कि पदार्थ का स्वरूप जैसा है, वैसा ही होना। द्रव्य एवं तत्त्व में प्रयोग रूप में समानता दृष्टिगोचर होती है, किन्तु दोनों में भिन्नता भी है। तत्त्वों का वर्गीकरण संक्षेप में विस्तार की दृष्टि से तत्त्व विभाग में तीन वर्गों का उल्लेख मिलता है। प्रथम वर्ग बनता है-दो की संख्या का जीव एवं अजीव / जीव एवं अजीव का वर्गीकरण संक्षेपशैली के आधार पर हुआ है। द्वितीय वर्ग में तत्त्व संख्या सात का समावेश होता है335-जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। तृतीय वर्ग के अनुसार तत्त्व संख्या नव है-स्थानांग सूत्र में इसके सन्दर्भ मिलते हैं। ये नौ पदार्थ हैं356-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष / आगम साहित्य में तत्त्वों का वर्गीकरण आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र37 में सात तत्त्वों का प्रतिपादन किया है। श्रावकाचार संग्रह 58 में भी नौ तत्त्वों का प्रतिपादन मिलता है। तत्त्वार्थ सूत्र में तत्त्व शब्द का अर्थ स्वतंत्र भाव न लेकर मोक्षप्राप्ति में होने वाले ज्ञेय भाव के अर्थ में लिया है। आध्यात्मिक दृष्टि से तत्त्वमीमांसा आध्यात्मिक दृष्टि से तत्त्व तीन प्रकार का है। जो जानने योग्य है, वह ज्ञेय तत्त्व है, जो छोड़ने योग्य है, वह हेय तत्त्व है, जो ग्रहण करने योग्य है, वह उपादेय तत्त्व है।339 संक्षेप में हम कह सकते हैं कि विश्व स्थिति के लिए छः द्रव्यों का ज्ञान आवश्यक है। उसी तरह जीव के हास एवं विकास की प्रक्रिया के लिए नव तत्त्व उपयोगी हैं, वो यथार्थ हैं। सन्दर्भ सूची 1. स्थानांग वृत्ति, गाथा-4, उद्देशक-2, सूत्र-217 2. उत्यादादि सिद्धिनामधेयं टीका, पृ. 2 3. उत्यादादि सिद्धिनामधेयं प्रकरण, श्लोक-1 4. वीतराग स्तोत्र, प्रकाश-8, श्लोक-12 5. प्रशमरति सूत्र, श्लोक-204 6. योग शतक ग्रन्थ, गाथा-71 7. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय-5, सूत्र-29 8. द्रव्यगुण पर्याय रास, ढाल-1, गाथा-3, 9 9. षड्दर्शन समुच्चय टीका, पृ. 350 10. न्यायविनिश्चय, पृ. 435 181 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org