Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________ द्वितीय भूमिका में ज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-इन दो भेदों में विभक्त किया गया है। पाँच ज्ञान में प्रथम दो ज्ञान परोक्ष एवं अन्तिम तीन ज्ञान को प्रत्यक्ष के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है। इस भूमिका में केवलज्ञान आत्म सापेक्ष ज्ञान को ही प्रत्यक्ष स्वीकार किया है। इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान को परोक्ष माना गया है। जिस इन्द्रिय ज्ञान को अन्य सभी दार्शनिक प्रत्यक्ष स्वीकार करते थे, वह इन्द्रिय ज्ञान जैन आगमिक परम्परा में परोक्ष ही रहा। तृतीय भूमिका में इन्द्रिय जन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों के अन्तर्गत स्वीकार किया है। इस भूमिका में लोकानुसरण स्पष्ट है। प्रथम भूमिकागत ज्ञान का वर्णन भगवती सूत्र में उपलब्ध होता है, जैसे कइविहे णं भंते। णाणे पण्णते? गोयमाः पंचविहे गाणे पण्णते, तं जहा आभिणि . बोहियणाणे, सुयणाणे, ओहिणाणे, मणपज्जवणाणे केवलणाणे। से किं तं आभिणिबोहियणाणे? आभिणिबोहियणाणे चउब्बिहे पण्णते, तं जहा-उग्गहो, ईहा, अपाओ, धारणा एवं जहा रायप्पसेणइज्जे णाणाणं भेओ तहेव इह भाणियव्वो, जाव से तं केवलणाणे।' वहां पर ज्ञान को पाँच भागों में विभक्त किया है, जो निम्न सारणी से समझा जा सकता है ज्ञान | / अभिनिबोधिक श्रुत अवधि मनःपर्यव केवलज्ञान अवग्रह ईहा अपाय धारणा भगवती सूत्र में ज्ञान संबंधी इससे आगे के वर्णन को राजप्रश्नीय सूत्र से पूरा करने का निर्देश दिया गया है तथा राजप्रश्नीय में पूर्वोक्त भेदों के अतिरिक्त अवग्रह के दो भेदों का कथन करके शेष की नंदीसूत्र से पूर्ति करने की सूचना दी गई है। स्थानांगगत ज्ञान चर्चा द्वितीय भूमिका की प्रतिनिधि है। स्थानांग में ज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-ये दो भेद किये गये हैं तथा पाँच ज्ञानों का सभाहार इन दो भेदों में हुआ है। 195 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org