Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष केवल नोकेवल आभिनिबोधिक श्रुतज्ञान इसी वर्गीकरण के आधार पर आचार्य उमास्वाति ने भी प्रमाण को प्रत्यक्ष, परोक्ष में विभक्त करके उन्हीं दो भेदों में पंचज्ञानों का समावेश किया है तथा पश्चातवर्ती जैन तार्किकों ने प्रत्यक्ष के सरल एवं विकल्प-ये भेद से दो विभाग किये। इस वर्गीकरण का आधार भी स्थानांग में आगत प्रत्यक्ष के केवल और नो केवल-ये दो भेद हैं। ज्ञानचर्चा विकास क्रम की तृतीय आगमिक भूमिका का आधार 'नंदी. सूत्र' में उपलब्ध ज्ञानचर्चा है, जैसे नाणं पंचविहं पण्णतं, तं जहा1. आभिणिबोहियणाणं, 2. सुयनाणं, 3. ओहिनाणं, 4. मण पज्जवनाण, 5. केवलणाणं। उपर्युक्त विवेचन से ये तथ्य स्पष्ट हो जाते हैं कि1. अवधि : मनःपर्यव और केवल-ये ज्ञान पारमार्थिक सत्य हैं। 2. श्रुत परोक्ष ही हैं। 3. इन्द्रियजन्य मतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष हैं और व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष हैं। 4. मनोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही हैं। ज्ञान चर्चा की स्वतंत्रता-पंचज्ञान चर्चा के क्रमिक विकास की इन तीनों आगमिक भूमिकाओं की विशिष्टता यह है कि इनमें ज्ञानचर्चा के साथ अन्य दर्शनों में प्रसिद्ध प्रमाण चर्चा के साथ कोई समन्वय स्थापित नहीं किया। ज्ञान के अधिकारी की अपेक्षा से सम्यक् एवं मिथ्या माना गया है। इस सम्यक् एवं मिथ्या विशेषण रूप ज्ञान के द्वारा ही आगमिक युग में प्रमाण एवं अप्रमाण के प्रयोजन को सिद्ध किया गया। आगम युग में प्रथम तीन ज्ञान को ज्ञाता की अपेक्षा मिथ्या तथा सम्यक् स्वीकार किया गया है तथा अन्तिम दो को सम्यक् ही माना है। अतः ज्ञान को साक्षात् प्रमाण-अप्रमाण न कहकर भी भिन्न प्रकार से इस प्रयोजन को निष्पादित कर लिया है। ज्ञान विचार विकास-जैन परम्परा में ज्ञान संबंधी विचारों का विकास भी अलग-अलग दिशाओं में हुआ है-स्वदर्शनाभ्यास और दर्शनान्तराभ्यास। स्वदर्शन अभ्यास जनित ज्ञान विचार विकास के अन्तर्गत अन्य दर्शनों की परिभाषाओं को अपनाने का प्रयल देखा नहीं जाता तथा परमत खण्डन प्राप्त नहीं है। 196 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org