Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ .. आत्मा को ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम एवं क्षय से जो तत्त्व बोध होता है, वही ज्ञान कहलाता है। ज्ञानावरणीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय से होने वाला ज्ञान केवलज्ञान क्षायिक है और क्षयोपशम से होने वाले शेष चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं। जो ज्ञान पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा उत्पन्न होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। मतिज्ञान को परोक्षज्ञान कहा गया है, क्योंकि जिस ज्ञान के होने में इन्द्रिय-मन आदि बाह्य साधनों की आवश्यकता पड़ती है, वह ज्ञान परोक्ष कहलाता है। परः+क्षय (आत्मा)-आत्मा के सिवाय पर की सहायता से प्राप्त ज्ञान। मतिज्ञान श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित-दो प्रकार का होता है। ज्ञान योग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मोह का त्याग ज्ञान से ही होता है, जैसे-राजहंस हमेशा मानसरोवर में मग्न रहते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी हमेशा ज्ञान में ही मग्न रहते हैं। उपाध्याय यशोविजय अध्यात्मसार में ज्ञानयोग की व्याख्या करते हुए कहते हैं-ज्ञानयोग शुद्ध तप है, आत्मरति उसका एक लक्षण है। ज्ञानयोग इन्द्रियों को विषयों से दूर ले जाता है। इसलिए ज्ञानयोग मोक्षसुख का साधक तप है। ज्ञानयोग ऐसा श्रेष्ठ तप है, जिसमें आत्मा के प्रति घनिष्ठ प्रीति तथा आत्मसम्मुख होने की उत्कृष्ट अभिलाषा होती है। इसलिए यह तप पुण्यबंध का निमित्त नहीं बनता है बल्कि कर्मनिर्जरा का निमित्त बनता है। इन्द्रियों के विषय जीव को पौद्गलिक सुख की . तरफ खींचते हैं, किन्तु ज्ञानयोग में पौद्गलिक सुखों की इस भव के लिए या भवान्तर के लिए . कोई अभिलाषा नहीं रहती है। इसमें सिर्फ मोक्षसुख की अभिलाषा रहती है, इसलिए ज्ञान का महात्म्य .. विशेष है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् में ज्ञानयोग का वर्णन करते हुए कहा है कि योगजादृष्टि जनितः स तु प्रातिभसंज्ञितः। सन्ध्येव दिन रात्रिभ्यां केवल श्रुतयोः पृथक।।" अर्थात प्रातिभज्ञान ही ज्ञानयोग है। यह योगजन्य अदृष्ट से उत्पन्न होता है। जैसे दिवस और रात्रि से संध्या भिन्न है उसी प्रकार केवलज्ञान और श्रुतज्ञान से प्रातिभज्ञान भिन्न है। इसे अनुभव ज्ञान भी कहते हैं। यह मतिश्रुत का उत्तरभावी तथा केवलज्ञान का पूर्वभावी है। मुनि यशोविजय अध्यात्मोपनिषद् की अध्यात्म वैशारदी नामक टीका में योगज अदृष्टि को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, जो मोक्ष के साथ जोड़े, इस प्रकार की सभी शुद्ध धर्मप्रवृत्तियों से उत्पन्न हुआ विशिष्ट पुण्यानुबंधी पुण्य पुष्फल दर्शनिर्जरा में सहायक होता है। उसी को योगज अदृष्ट कहते हैं, उससे प्रातिभ नाम का ज्ञान उत्पन्न होता है, वही ज्ञानयोग है।" उपाध्याय यशोविजय ने षोडशक ग्रंथ की योगदीपिका नामक टीका में बताया है कि प्रतिभा ही प्रातिभज्ञान कहलाती है।" हरिभद्रसूरि ने भी योगदृष्टि समुच्चय में बताया है कि प्रातिभज्ञान सर्वद्रव्यपर्याय विषयक नहीं होने से केवलज्ञान स्वरूप नहीं है। उसी प्रकार प्रातिभ ज्ञान को अन्य दर्शनकारों ने तारकनिरीक्षण ज्ञान के रूप में मान्य किया है। वाचस्पति मिश्र ने तत्त्ववैशारदी नामक टीका में कहा है कि प्रातिभज्ञान का मतलब है स्वयं की प्रतिभा से उत्पन्न हुआ उपदेश निरपेक्ष ज्ञान। यह संसार-सागर से पार होने का उपाय होने के कारण तारक कहलाता है। 200 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org