Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ श्रुतज्ञान द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्यमन के निमित्त से शब्द या अर्थ को मतिज्ञान से ग्रहण कर स्मरण कर उसमें श्री वाच्य-वाचक सम्बन्ध की पर्यालोचना शब्दोल्लेख सहित शब्द और अर्थ जानना ही श्रुतज्ञान है। जो सुना जाता है अथवा जिसके द्वारा सुना जाता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। इसमें भी इन्द्रिय और मन ही काम करता है। पत्थर की गाय से नैसर्गिक गाय का ज्ञान होता है, उसी प्रकार शब्द जड़ होने पर भी जितने प्रमाण में धारणा शक्ति या संचय किया होगा, उतना ही श्रुतज्ञान होगा। मतिज्ञान की शुद्धता, शुद्धतरता, शुद्धमता पर ही श्रुतज्ञान की शुद्धता आदि निश्चित होती है।28 मति विणा श्रुत नवि लहे कोई प्राणी समकिंतवंत नी एह निशानी। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् में त्रिविध ज्ञान या तीन स्तर की जो चर्चा की, वो निम्न है त्रिविध-ज्ञानमाख्यातं श्रुतं चिन्ता च भावना। आधं कोष्ठगबीजाभ वाक्यार्थविषयं मतम् / / ज्ञान के तीन स्तर हैं-श्रुतज्ञान, चिंताज्ञान एवं भावनाज्ञान। इन तीनों में प्रथम स्तर श्रुतज्ञान है। उपाध्याय यशोविजय के मतानुसार इस ज्ञान को भंडार में रखे हुए अनाज के दानों के समान माना जाता है। जिस प्रकार भण्डार में रखे हुए अनाज के दानों में उगने की शक्ति रही हुई है, किन्तु जब तक वे भंडार में रहते हैं, तब तक उनकी यह शक्ति अभिव्यक्त नहीं होती है। चिन्तन, विमर्श और अनुभूति का अभाव होता है। श्रुतज्ञान आगम वचनों का मात्र शाब्दिक अर्थ ही मानता है, उसका फलितार्थ नहीं जानता। श्रुतज्ञान की दृष्टि से सव्वे जीवा न हंतव्वा अथवा सव्वे जीवा वि इच्छंति पाणवहां न कायव्वो आदि वाक्यों का सामान्य अर्थ हिंसा नहीं करना तक ही सीमित है। इसलिए आचार्य यशोविजय ने यह माना है कि श्रुतज्ञान में नय निक्षेप की दृष्टि से किसी प्रकार का चिन्तन नहीं होता है। यशोविजय की दृष्टि से किसी प्रकार का चिन्तन नहीं होता है। यशोविजय की दृष्टि से यह प्राथमिक बोध है। उदाहरण-किसी जीव की हिंसा नहीं करना चाहिए और श्रावक को जिनमंदिर बनाना चाहिए। दोनों ही शास्त्रवचन हैं। इनका विरोध और उसके समाधान का प्रयत्न श्रुतज्ञान में नहीं है, क्योंकि श्रुतज्ञान विमर्शात्मक नहीं है। संक्षेप में उपाध्याय यशोविजय ने श्रुतज्ञान की चार विशेषताएँ बताई हैं 1. सर्वशास्त्रानुगत, 2. प्रमाणनयवर्जित, 3. कोठार में रहे हुए बीज के समान अविनष्ट, 4. परस्पर विभिन्न विषयक पदार्थों में गति नहीं करने वाला। आचार्य हरिभद्र ने षोडशक प्रकरण में कहा है कि मात्र वाक्यार्थ विषयक कोठार में रहे हुए बीज के समान प्राथमिक ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान मिथ्याभिनिवेश से रहित होता है। संक्षेप में श्रुतज्ञान का प्राथमिक स्तर है। 202 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org