Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ जिनवरमा सघला दरिसण छे दर्शन जिनवर भजना। सागरमा सघली तटिनी सही, तटिनी सागर भजनारे / / / इस प्रकार अनेकान्तदृष्टि एक विशाल दृष्टिकोण है। अनेकान्तदृष्टि एक वस्तु में अनन्त धर्मों का दर्शन कराती है। इसी विषय संबंधी प्रमाण स्याद्वादमंजरी, अनेकान्त व्यवस्था,323 प्रमाणनयतत्त्वालोक, अनेकान्तजयपताका,325 षड्दर्शन समुच्चय26 टीका आदि में भी मिलता है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् में कहा है यत्र सर्वत्र समता, नयेषु तनयेष्विव। तस्यानेकान्तवादस्य, कव न्यूनाधिकशेमुषी।।। जैसे माता को अपने सब बच्चों के प्रति समान स्नेह होता है, ठीक वैसे ही जिस अनेकान्तवाद को सब नयों के प्रति समान दृष्टि होती है, उस स्याद्वादी को एक नय के प्रति हीनता की बुद्धि और एक नय के प्रति उच्चता की बुद्धि कैसे होगी? संक्षेप में कह सकते हैं कि अनेकान्तवाद का सिद्धान्त दार्शनिक, धार्मिक, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन के विरोधों में समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत करता है, जिससे मानव जाति के संघर्षों के निराकरण में सहायता मिल सकती है।528 स्याद्वाद चिंतामणि में प्राप्ति के इच्छुक बुद्धिमान व्यक्ति को सदैव गुरु उपदेश से उस तत्त्व को . समझना चाहिए, जिससे उसकी प्रज्ञा प्रकर्ष बनकर ज्ञेयोपज्ञेय को सम्पूर्ण रीति से जान सके। . .. तत्त्वमीमांसीय वैशिष्ट्य जीव जगत् आदि समस्त दृश्य-अदृश्य तत्त्वों का सम्यक् परिबोध ही तत्त्वदर्शन है। तत्त्वमूलक प्रश्नों का सम्यक् समाधान दर्शन के धरातल पर ही संभव है। अतः तत्त्व एवं दर्शन अन्योन्याश्रित हैं। जिज्ञासु साधक के मन में असंख्य वैश्विक, जैविक प्रश्नों का अन्धड़ उठता है, जो भीतर ही भीतर असंख्य ऊहापोह को जागृत करता है। बस, चिंतन की धारा जहाँ से प्रवाहित होती है, वहीं दर्शन की उद्गमस्थली बन जाती है। चिंतन की धारा में अवगाहन करते, जिसको जो भी तथ्य प्रतिभासित हुआ, उसने उसका प्रतिपादन किया। परिणामस्वरूप दर्शन की विविध धाराएँ अस्तित्व में आईं। तत्त्वभेद ही दर्शन-भेद का ज्ञापक रहा है। तत्त्वभेद नहीं होता तो दर्शन में वैविध्यता पनप नहीं पाती। तत्त्व की परिभाषा तत्त्व में तत् शब्द सर्वनाम है और सर्वनाम सामान्य अर्थ के अवबोधक होते हैं। तत् शब्द को भाव अर्थ में त्व प्रत्यय लगाने से जो अर्थ निष्पन्न होता है, वह यह कि जो पदार्थ जिस रूप में अवस्थित है, उसका उसी रूप में होना। यही तत्त्व का तात्पर्य है। तत्त्व शब्द के सामान्य अर्थ हैं-वास्तविक स्थिति, यथार्थता, असलियत। जगत् का मूल कारण पंचमहाभूत परमात्मा, ब्रह्म, सारवस्तु, सारांश आदि / तत्त्व शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है-वास्तविक अवस्था, परिस्थिति, यथार्थ रूप आदि।। दार्शनिक परम्परा में तत्त्व शब्द मूल कारण और यथार्थता के अर्थ में लिया गया है। 179 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org