Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ अजीव धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय काल शुद्ध आत्मस्वरूप में अवस्थित होने के लिए कर्मों से मुक्त होना आवश्यक होता है। पुण्य तत्त्व-जीवों को दृष्ट वस्तु का जब समागम होता है तब वह परम आह्लाद की प्राप्ति होती है तथा सुख की जो अनुभूति करता है, उसका मूल शुभकर्म का बंध वह पुण्य और वही पुण्य तत्त्व कहलाता है। तत्त्वार्थ सूत्रकार आचार्य उमास्वाति ने कहा है-शुभ पुण्यस्थ।305 शुभयोग पुण्य का आश्रव है। पुनाति जो पवित्र करता है, वह पुण्य तत्त्व है। पुण्य का बंध नौ प्रकार से होता है, जो स्थानांग सूत्र में बताया है, जैसे पुण्य शुभ कर्म अन्नपुण्य पानपुण्य लयनपुण्य शयनपुण्य वस्त्रपुण्य मनपुण्य वचनपुण्य कायपुण्य नायकपुण्य इन नव कारणों से पुण्य बंध होता है। हर शुभ प्रकृतियों से वह भोगा जाता है। - यद्यपि पुण्य तत्त्व सोने की बेड़ी समान है। फिर भी संसार अटवी के महाभयंकर उपद्रव वाले मार्ग को पार करने में, जीतने में योद्धा समान है। पाप तत्त्व-पुण्य तत्त्व से विपरीत पाप तत्त्व है अथवा अशुभ कर्म। यह पापतत्त्व अथवा जिसके द्वारा अशुभ कर्मों का ग्रहण होता है जैसी अशुभ क्रिया, वह पापतत्त्व है। इस कर्म के उदय से जीवों को अशुभ वस्तुओं की प्राप्ति होती है। अत्यन्त उद्वेग, खेद, दुःख आदि को प्राप्त करता है। नरक आदि . . "दुर्गति में गमन करवाता है पारायति मलिनयति जीर्वामति पापम्। जो जीव को मलिन करता है, आत्मा को आच्छादन करता है, वह पाप है। पाप का बंध होने के कारण 18 हैं, जिन्हें अठारह पापस्थान कहते हैं। वो प्राणातिपात आदि 18 प्रकार से पाप का बंध होता है। यह पापतत्त्व 82 प्रकार से उदय में आ सकता है। पुण्य-पाप की चतुभंगी इस प्रकार है1. पुण्यानुबंधी पुण्य, 2. पुण्यानुबंधी पाप, 3. पापानुबंधी पुण्य, 4. पापानुबंधी पाप। आश्रवतत्त्व-आ अर्थात् समन्तात्, चारों तरफ से, श्रव यानी आना अथवा 'आश्रयते उपादीयते', कर्म ग्रहण होना अथवा 'अश्नानि आदते कर्म यैस्ते आश्रवाः' जीव जिसके द्वारा कर्मों को ग्रहण करता है, वह आश्रव है अथवा आ यानी चारों तरफ से श्रवति क्षरति जलं सूक्ष्मन्धेषु यैस्ते आश्रवा अर्थात् सूक्ष्म छिद्रों में से होकर जलरूप कर्म प्रवेश करते हैं, वह आश्रव है। अतः कर्म आना ही आश्रव है। 172 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org