________________ संवर के भेद संवर सम्यक्त्व व्रत अप्रमाद अकषाय - अयोग संवर सर्व संवर देश संवर आश्रव के निरोधरूप संवर की सिद्धि इन कारणों से होती है। निर्जरा तत्त्व-कर्मों का आत्मप्रदेशों से दूर होना, नाश होना निर्जरा कहलाता है। जिसके द्वारा कर्मों का नाश होता है, वह तपश्चर्या विगेरे निर्जरा कहलाती है अथवा निर्जरणं निर्जरा आत्मप्रदेशेम्भ्योऽनुभूत सकर्म पुद्गल परिशाटनं निर्जरा इति।। - आत्मप्रदेशों के द्वारा अनुभावित रसयुक्त कर्म पुद्गलों का विनाश होना निर्जरा कहलाता है। शुभ अथवा अशुभ कर्मों का देश से क्षय होना द्रव्य निर्जरा अथवा सम्यक्त्व रहित अज्ञान परिणाम वाली निर्जरा द्रव्य निर्जरा अथवा सम्यक् परिणाम रहित तपश्चर्या, वह द्रव्य निर्जरा कहलाती है और कर्मों से देशक्षय में कारणभूत आत्मा का अध्यवसाय वह भाव-निर्जरा अर्थात् सम्यक् परिणाम से युक्त तपश्चर्यादि क्रियाएँ भाव-निर्जरा कहलाती हैं। * अज्ञान तपस्वियों की अज्ञान कष्ट वाली जो निर्जरा है, वह अकाम-निर्जरा तथा वनस्पति आदि सर्दी, गर्मी आदि कष्ट सहन करते हैं, वह भी अकालनिर्जरा, यही द्रव्य निर्जरा भी कहलाती है तथा सम्यक्त्व दृष्टिवंत जीवों की देशविरति सर्वविरती आत्माओं की सर्वज्ञ भगवान के द्वारा कथित पदार्थों को जानने के कारण विवेक-चक्षु जागृत हो जाने के कारण उनकी इच्छापूर्वक तपश्चर्यादि क्रियाएँ सकाम निर्जरा कहलाती हैं और अनुक्रम से मोक्ष प्राप्ति वाली होने से भाव-निर्जरा कहलाती हैं। निर्जरा के भेद निर्जरा बाह्य . आभ्यंतर अनशन उणोदरी भिक्षाचारिया रसपरित्याग कायाक्लेश प्रतिसंलीनता प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्य स्वाध्याय ध्यान व्युत्सर्ग इन बारह प्रकार के तप से कर्मों की निर्जरा होती है। तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा है तपसाः निर्जरा च।। बंधतत्त्व-जीव के साथ कर्मों का क्षीर-नीर समान परस्पर संबंध होना बंध कहलाता है। आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों का संबंध होना, वह द्रव्य-बंध और उस द्रव्य-बंध के कारणरूप आत्मा का जो अध्यवसाय है, वह भावबंध कहलाता है / 174 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org