Book Title: Mahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Amrutrasashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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________________ जीवतत्त्व के कथन द्वारा जीव को मोक्ष का अधिकारी बताया गया है तथा अजीव तत्त्व से यह सूचित किया गया है कि संसार में ऐसा भी तत्त्व है, जिसे मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं दिया जाता है तथा यह तत्त्व जीव पर भी अपना आधिपत्य स्थापित करने में समर्थ है। जीव अपने आत्मस्वरूप और ज्ञान-चेतना से उक्त विरोधी भावों का निरोध करता है। संवर और निर्जरा द्वारा मोक्ष के साधनों को सूचित किया गया है। पुण्यतत्त्व कथंचित् हेय एवं कथंचित् उपादेय तत्त्व है लेकिन उनका विचार-विमर्श विभिन्न रूपों में किया है। उत्तराध्ययन सूत्र में नवतत्त्व का उल्लेख इस प्रकार मिलता है जीवा जीवा यं बंधो य पुण्णं पावासवो तह। संवरो निज्जरा मोक्खो, संतए तहिया नव। तहियाणं तु भावाणं सत्भावे उपएसणं / भावेणं सदहंतस्स सम्मतं तं वियाहियं / / अर्थात् जीव, अजीव, पुण्य, पाप, बंध, आश्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये नव तत्त्व हैं। इन तथ्यभावों के सद्भाव (वास्तविक अस्तित्व) के निरूपण में जो अन्तःकरण से श्रद्धा करता है, उसे सम्यक्त्व कहा गया है।300 ठाणं में तथ्य के स्थान पर सद्भाव पदार्थ का प्रयोग हुआ है। तथ्य, पदार्थ और तत्त्व-ये पर्यायवाची हैं। उत्तराध्ययन के वृत्तिकार ने तथ्य का अर्थ अवितथ किया है, अर्थात् जो वास्तविक है। इसी प्रकार नवतत्त्व का पाठ नवतत्त्व प्रकरण, पंचास्तिकाय आदि में भी मिलता है। वैशेषिक के द्वारा माने गये ज्ञान, सुख, दुःख, रूप, रस आदि गुण, कर्म, सामान्य, विशेष समवाय आदि सात पदार्थ भी जीव और अजीव के अन्तर्गत हो जाते हैं। कोई प्रमाण, गुण आदि पदार्थों को द्रव्य से सर्वथा भिन्न रूप में नहीं जाना जा सकता। वे तो द्रव्यात्मक ही हैं। ... इसी प्रकार बौद्धों के द्वारा माने गए दुःख, समुदाय आदि चार आर्यसत्यों का भी जीव और अजीव में समावेश हो जाता है अर्थात् जगत् के समस्त पदार्थ जीवराशि में या अजीवराशि में अन्तर्भूत हो जाते - हैं। इससे अलग तीसरी कोई राशि नहीं है। जो इन दो राशियों में सम्मिलित नहीं है, वो मानो खरगोश के सींग की भांति असत् है। बौद्धों के दुःख तत्त्व का बन्ध में, समुदाय का आश्रव में, निरोध का मोक्ष में तथा मार्ग का संवर और निर्जरा में अन्तर्भाव हो जाता है। वस्तुतः नव तत्त्वों में ही दो ही तत्त्व मौलिक हैं। शेष तत्त्वों का इनमें समावेश हो जाता है, जैसे कि पुण्य और पाप दोनों कर्म हैं। बन्ध भी कर्मात्मक और कर्मपुद्गल के परिणम हैं तथा पुद्गल अजीव है। आश्रव आत्मा और पुद्गलों से अतिरिक्त कोई अन्य पदार्थ नहीं है। संवर आश्रव के निरोधरूप है। निर्जरा कर्म का एक देश से क्षयरूप है। जीव अपनी शक्ति से आत्मा के कर्मों का पार्थक्य संपादन करता है। मोक्ष भी समस्त कर्म रहित आत्मा है अर्थात् जीव-अजीव इन दोनों में शेष सभी समाविष्ट हो जाते हैं, फिर नवतत्त्वों का कथन व्यर्थ में किसलिए किया गया? इसका समाधान शास्त्रों में इस प्रकार मिलता है कि यद्यपि ये सभी जीव और अजीव के अन्तर्भूत हैं, फिर भी लोगों को पुण्य-पाप आदि में सन्देह रहता है। अतः उनके सन्देह को दूर करने के लिए पुण्य-पाप का स्पष्ट निर्देश किया गया है। संसार के कारणों का स्पष्ट कथन करने के लिए आश्रव और बन्ध का तथा मोक्ष और मोक्ष के साधनों का विशेष निरूपण करने के लिए संवर तथा निर्जरा का स्वतंत्र रूप से कथन किया है। आगमों में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है। 170 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org